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________________ 64 ] हे देव ! आपका चन्द्रमा के बिम्ब का उपहास करने वाला प्रसन्न मुख, कमल दल को जीतने वाले दया से आर्द्र-गीले दोनों नेत्र और पद्मासन में स्थित प्रशान्त शरीर यह आपकी योगमुद्रा नहीं है क्या? अर्थात् यही वास्तविक योगमुद्रा है फिर अन्य मुद्राओं से क्या प्रयोजन है ? // 28 // स्वद्योगमुद्रामपि वीक्षमाणाः, प्रशान्तवैराः पुरुषा भवन्ति / विशिष्य वक्तुं कथमीश्महे तत्, तबान्तरङ्ग प्रशमप्रभावम् // 26 // हे जिनेश्वर ! लोग आपकी योगमुद्रा को देखकर ही वैर-भाव को छोड़ देते हैं, (यह आपका महान् प्रभाव है) फिर आपके प्रशमभाव से युक्त अन्तरङ्ग की विशेषता को कहने के लिये हम कैसे समर्थ हो सकते हैं ? // 26 // मूर्तिस्तव स्फूतिमती जनान्तविध्वंसिनी कामिनचित्रवल्ली। विश्वत्रयीनेत्रचकोरकाणां, तनोति शीतांशुरुचां विलासम् // 30 / / हे देव ! आपकी तेजस्विनी मूर्ति लोगों के कष्ट को नष्ट करनेवाली तथा चित्रवल्ली के समान इच्छापूर्ति करनेवाली है। आपकी यही मूर्ति तीनों लोकों के प्राणियों के नेत्ररूपी चकोरों के लिये चन्द्रमा की किरणों का आनन्द बढ़ा रही है / / 30 // फणामणीनां घृणिभिर्भुवीश !, मूर्तिस्तवाभाति विनीलकान्तिः / उदिभन्नरक्ताभिनवप्रवालप्ररोहमिश्रेव कलिन्दकन्या // 31 // हे स्वामिन् ! इस भूमण्डल पर आपकी मूर्ति फणामरिणयों की रश्मियों से विशिष्ट कान्तिमयी होकर सर्वत्र शोभित हो रही है / उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह ऊपर निकले हुए लाल नये प्रवाल-अंकुरों से युक्त यमुना हो / / 31 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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