________________ [ 63 त्वत्तो न तीर्थेश ! परः कृपालुमत्तः कृपापात्रमपीह नान्यः। अतोऽस्ति योग्योऽवसरः कृपाया, ब्रुवे किमन्यज्जगदीशितारम् // 25 // हे तीर्थङ्कर ! इस संसार में आप से बढ़कर दूसरा कोई कृपालु नहीं है और मुझे छोड़ कर अन्य कोई कृपापात्र भी नहीं है / अतः यह कृपा करने का उचित अवसर है। आप जगत् के स्वामी को और क्या कहूँ ? // 25 // प्रथास्ति चेदेष जनः समन्तुस्तथाप्यहो ! ते किमुपेक्षणीयः ? / सकण्टकं कि न सरोजखण्डमुन्मीलयत्यंशुभिरंशुमाली // 26 // हे देव ! अब यदि यह जन अपराध से युक्त है, तो भी क्या आपके द्वारा उपेक्षणीय है ? अर्थात् नहीं है / क्यों कि सूर्य अपनी किरणों से कण्टकयुक्त कमल-खण्ड को विकसित नहीं करता है क्या ? अर्थात् जैसे सूर्य काँटों से युक्त कमल-खण्ड को दोषयुक्त होने पर भी विकसित करता है उसी प्रकार मैं भी अपराध-युक्त होने पर भी आपके द्वारा उपेक्षा के योग्य नहीं हूँ // 26 // कृपावतां न स्वकृतोपकारे, सदोषनिर्दोषविचारणास्ति / समं घनः सिञ्चति काननेषु, निम्बं च चूतं च घनाभिरद्भिः // 27 // हे जिनेश्वर ! कृपालु जनों का अपने द्वारा किए गए उपकारों के सम्बन्ध में सदोष और निर्दोष का विचार नहीं होता है। क्योंकि मेघ वनों में जब वृष्टि करते हैं तो वे नीम और आम दोनों के वृक्षों को समानरूप से घनी बृष्टि से सींचते हैं / / 27 // मुखं प्रसन्नं हसितेन्दुबिम्बं, नेत्रे कृपाइँ जितपद्मपत्र। पद्मासनस्था च तनुः प्रशान्ता, न योगमुद्रापि तवाप्युतान्यैः // 28 //