________________ 12. ] रागं च कोपं च न नाथ ! धत्से, स्तुत्यस्तुतीनां च फलं प्रदत्से / ' लोकोत्तरं किञ्चिदिदं त्वदीयं, शीलं समाशीलितविश्वलीलम् / / 21 // हे नाथ ! आप राग अथवा क्रोध को धारण नहीं करते हो तथा स्तुति और प्रस्तुति का फल देते हो। अतः संसार में कौतुक करने वाला आपका यह शील कुछ अद्भुत ही है / / 21 // त्वद्ध्यानबद्धादरमानसस्य, त्वयोगमुद्राभिनिविष्टबुद्धः।। तवोपदेशे निरतस्य शश्वत्, कदा भविष्यन्ति शमोत्सवा मे // 22 // हे देव ! आपके ध्यान में आदरपूर्वक लगाए हुए चित्तवाले, आप की योगमुद्रा में अभिनिविष्ट बुद्धिवाले तथा आपके उपदेश में सदा निरत ऐसे मेरे शम के उत्सव-शान्त भाव कब होंगे ? // 22 // अकुर्वतः सम्प्रति लब्धबोधि, समीहमानस्य परां च बोधिम् / न साम्प्रतं किञ्चन साम्प्रतं तद्, दयस्व दीनं परमार्थहीनम् // 23 // हे देव ! सम्प्रति लब्धबोधि को नहीं करनेवाले और परा(उत्कृष्ट) बोधि को चाहनेवाले का अभी कुछ भी ठीक नहीं है। अतः परमार्थ-वास्तविता से शून्य मुझ दीन पर दया करो // 23 // निर्वेदमुख्यं च भवन्तमेव, नाथन्ति नाथं यतयो न चान्यम् / सुधार्थमुच्चैविबुधा सुधांशु, नाथन्ति नान्यं ग्रहमप्युदारम् // 24 // हे देव ! मुनिजन विरागियों में मुख्य स्वामी समझकर आपकी ही सेवा करते हैं, किसी दूसरे स्वामी की सेवा नहीं करते / जैसे कि देवगण अमृत की प्राप्ति के लिए चन्द्रमा से ही प्रार्थना करते हैं अन्य उदार ग्रह की नहीं // 24 //