________________ [ 61 प्रज्ञानजं बन्धनमङ्गभाजां, ज्ञानं विना देव ! कथं व्यपैति। अधर्मजं जाड्यमुपैति नाशं, न धर्मरश्मेहि विना प्रतापम् // 17 // हे देव ! प्राणियों का अज्ञान से उत्पन्न बन्धन बिना ज्ञान के कैसे नष्ट हो सकता है ? क्योंकि अघर्म-ठण्डी से उत्पन्न जडता धर्मरश्मिसूर्य की किरणों के प्रकृष्ट ताप के बिना नष्ट ही नहीं होती है // 17 // न ज्ञानमात्रादपि कार्यसिद्धिविना चरित्रं भवदागमेऽस्ति। अपोक्षमाणः पदवीं न पङ्गुविना गति हन्त ! पुर प्रयाति // 18 // हे देव ! आपके पागम में चरित्र से रहित केवल ज्ञानमात्र से ही कार्य की सिद्धि नहीं होती है। जैसे कि कोई पंगु-बिना पैर का आदमी मार्ग को देखता हुआ भी बिना गति के गाँव में नहीं पहुंच पाता // 18 // संसारसिन्धाविह नास्ति किञ्चिदालम्बनं देव ! विना त्वदाज्ञाम् / तया विहीनाः परकष्टलोना, हहा ! महामोहहताः पतन्ति // 16 // हे प्रभो ! आपकी आज्ञा को छोड़ कर इस संसार-सागर में अन्य कोई सहारा नहीं है। और जो लोग आपकी आज्ञा से वञ्चित हैं वे अज्ञानी महामोह से खिन्न एवं परम क्लेश से पीडित होते हुए संसारसमुद्र में गिरते हैं // 16 // महौषधी जन्मजरामयानां, महार्गला दुर्गतिमन्दिरस्य / खनिः सुखानां कृतकर्महानिराज्ञा त्वदीयास्ति जिनेन्द्रचन्द्र ! // 20 // हे जिनेन्द्रचन्द्र ! आपकी आज्ञा प्राणियों के जन्म, जरा और रोगों के निवारण के लिए महान् औषधि है, दुर्गति-नरक के मन्दिर की महान् अर्गला है, सुखों की खान है और किए हुए कर्मों का नाश करनेवाली है // 20 //