________________ 60 ] भवन्तमुत्सृज्य विलीनरागं, परं भजन्ते स्वहिताथिनो ये। तेषां वयं देव ! सचेतनानां, विद्मो विशेष किमचेतनेभ्यः ? // 13 // - हे देव ! अपना हित चाहनेवाले जो लोग आपको छोडकर राग में लीन अन्य देव की उपासना करते हैं उन सचेतनों-विद्वानों को हम अचेतनों-मुखों से अधिक क्या समझे ? अर्थात् उन्हें सचेतन होते हुए भी हिताहितज्ञानशून्य झेने के कारण हम जड ही समझते हैं // 13 // मोहावृतानामपि शास्त्रपाठो, हहा महानर्थकरः परेषाम् / रागैकलुब्धस्य हि लुब्धकेभ्यो, वधाय नून हरिणस्य कर्णी // 14 // हे देव ! अज्ञान से युक्त अन्य देवों के शास्त्र का पाठ महान् अनर्थ करने वाला है, यह बडे दुःख की बात है। क्योंकि राग के मुख्य लोभी हरिण के दोनों कान निश्चय ही व्याधों के वध के लिए हैं / / 14 // शमो दमो दानमधोतिनिष्ठा, वृथैव सर्व तव भक्तिहीनम् / भावक्रियां नैव कविप्रबन्धो. रसं विना यच्छति चारुबन्धः // 15 // हे देव ! आपकी भक्ति से रहित शम दम, दान और अध्ययननिष्ठा सब व्यर्थ ही हैं, क्योंकि सुन्दरबन्ध वाला कवि का प्रबन्ध (निबन्ध-काव्यरचना) रस के बिना भावक्रिया को नहीं देता है अर्थात् रसान्मक वाक्य ही काव्य है // 15 // अन्तर्मुहतं विहितं तपोऽपि, त्वदाज्ञया देव ! तमस्तृणेढि। विना तु तां हन्त ! युगान्तरारिण, कथापि न क्लेशकृतां शिवस्य // 16 // हे देव ! आपकी आज्ञा से एक क्षगा भी किया हया तप अन्धकार का नाश करता है और आपकी आज्ञा के बिना युगों तक की गई तपस्या भी कल्याणकारिणी नहीं होती / / 16 //