________________ [86 हे नाथ ! यदि आप प्रसन्न हों, तो फिर कलिकाल से लालित इन दुष्टों से विद्वानों का क्या बुरा हो सकता है ? क्योंकि यदि सूर्य अपनी किरणों को फैलाता है तो वहाँ अन्धकार का पराक्रम क्या कर सकता है ? // 6 // अमूढलक्ष्यत्वमिहेश ! दुर्जने, न सम्यगन्धाविव तत्त्वचालनम् / कथा नु कोलाहलता विगाहते, ततः कथं नाथ ! बुधः प्रवर्तताम् // 10 // हे जिनेश्वर ! इस संसार में दुर्जन में बुद्धिमानी का तत्त्व-चालन समुद्र (जड़) में तत्त्वचालन के समान उचित नहीं है। क्योंकि दुर्जन और जड़ समुद्र दोनों में ही तत्त्वसंचालन से जो महत्त्व की बात है वह कोलाहल में डूब जाती है। इसलिए उसमें पण्डितजन कैसे प्रवृत्त हों? // 10 // यथा पथा यात्युपमृद्य कण्टकान्, जनो मनोऽभीहितबद्धलालसः / त्वदाज्ञया देव ! निहत्य दुर्जनान्, तथा विधेयैव कथा विपश्चिता // 11 // हे देव ! जैसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कामनावाला मार्ग में आनेवाले काँटों को नष्ट करके आगे बढ़ता है, वैसे ही आपकी आज्ञा से विद्वान् को भी चाहिए कि वह दुर्जनों को नष्ट करके आपकी कथा अवश्य करे // 11 // संवादसारा भवदागमा यज्जगच्चमत्कारकराः स्फुरन्ति / उच्छ ङ्खलानां नियतं खलानां, मुखे मषीलेपमहोत्सवोऽसौ // 12 // 'हे देव ! संसार को चमत्कृत करनेवाले संवादों से श्रेष्ठ जो आप . के आगम शोभायमान हो रहे हैं, वे निश्चय ही उच्छं खल-दुष्ट जनों . के मुंह पर कालिख पोतने के महोत्सव के समान हैं // 12 //