________________ 100 ] कुदृष्टिभिर्ववतया श्रितेषु वा, परेषु दोषोऽस्ति न नाम कश्चन। . ' न मूढरूप्यभ्रमभाजनेष्वपि, प्रवर्तते रङ्गगरणेषु दुष्टता // 50 / / हे जिनेश्वर ! कुदृष्टिवाले व्यक्तियों द्वारा अन्य देवों की देवता के रूप में सेवा करने पर भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि मूों के द्वारा चाँदी का भ्रम उत्पन्न करनेवाले पात्रों में रंग-समूहों के कारण दोष नहीं आता है // 50 // सरागता चेज्जिनदेवमाश्रयेत् तमस्तदा तिग्मरुचं पराभवेत् / विरागता वा यदि तं न संश्रयेत्, तदा प्रकाशोऽपि न भानुमालिनम् // 51 // यदि सरागता अर्थात् रागीपन जिनेश्वरदेव का आश्रय ले ले तो अन्धकार सूर्य को पराजित करे और यदि विरागिता उनका सहारा न ले तो सूर्य में भी प्रकाश न रहे // 51 // गवां विलासास्तव देव ! भास्वतस्तमोभरं घ्नन्ति भुवि प्रसृत्वरम् / अशेषदोषोपशमकवृत्तयः, प्रकाशमन्तः परमं प्रकुर्वते // 52 // हे जिनेश्वर ! सूर्य की किरणें संसार में बढ़े हुए अन्धकार समूह को जिस प्रकार नष्ट करती हैं उसी प्रकार आपकी वारिणयों के विलास भी समस्त दोषों का उपशमन कर अन्तःकरण में परम प्रकाश कर देते हैं / / 52 // इदं महच्चित्रमहीन-जातिजोऽप्युदनभोगप्रसरात् पराङ्मुखः / जनार्दनायोगकृतप्रसिद्धिभाग, न वैनते यश्रयमातनोऽसि न // 3 // हे जिनेश्वर ! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आप अहीन-सर्पराज :