________________ [ 53 कापड़िया ने किया है। विनयहंसगरिण का 'जिनस्तोत्रकोश', धन जय का 'विषापहार-स्तोत्र', जिनवल्लभ सूरि, दि० भूपाल तथा श्रीपाल कवि के कुछ स्तोत्र इसी कोटि के हैं। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य ने १-'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका, २-अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, ३-वीतरागस्तोत्र तथा ४-महादेवस्तोत्र की रचना द्वारा पूर्वाचार्यों की स्तोत्ररचना-पद्धति का ही अवलम्बन लिया और अपने अगाध ज्ञान का समावेश करते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का चिन्तन प्रस्तुत किया। तेरहवीं शती का पूर्वार्ध प्राचार्य हेमचन्द्र की ऐसी अनेक रचनाओं से मण्डित हुआ, जिनके पालोडन से उत्तरवर्ती प्राचार्य न केवल प्रभावित ही हुए अपितु अपनी सर्जन-शक्ति का उपयोग उन्होंने उनकी रचनाओं के भाष्य एवं व्याख्यान में ही अधिक किया। श्रीरामचन्द्र (सूरि) ने अर्थालंकारों को महत्त्व देते हुए विरोध, उपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, अपह नुति आदि अलंकारभित द्वात्रिंशिकानों की रचना की। कवि प्रासड, मन्त्री आह्लाद, मन्त्री पद्म तथा धर्मघोषसूरि ने इसी धारा को और विकसित किया। श्री जिनप्रभसूरि (वि० सं० 1365) ने इस परम्परा में एक बहुत बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया। इनके बारे में यह प्रसिद्धि है कि 'श्रीपद्मावती देवी की कृपा से आपको प्रखर वैदुष्य मिला था और आपका यह अभिग्रह था कि प्रतिदिन एक नवीन स्तोत्र की रचना करके ही आहार ग्रहण करना। यही कारण था कि श्रीसूरिजी ने विविध चित्र, यमक, श्लेषादि अलङ्कार तथा छन्दों के विभिन्न प्रयोग से युक्त 700 स्तोत्रों का निर्माण किया। श्री कुलमण्डन सूरि, जयतिलकसूरि, जयकोतिसूरि, साधुराज गरिण आदि कतिपय आचार्य शुद्ध रूप से चित्रकाव्यमय स्तव लिखने में विख्यात हैं / सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि (वि. सं. 1485) ने 'जिनस्तोत्ररत्नकोश अथवा जिनस्तोत्रमहाह्रद' की रचना की थी। इसके