________________ 54 ] प्रथम प्रस्ताव में ही 23 स्तोत्र हैं जबकि अन्य प्रस्ताव उपलब्ध नहीं हुए हैं। श्री सोमसुन्दर सूरि के 'युष्मच्छन्दनवस्तवी' और 'अस्मच्छब्द नवस्तवी' में 18 स्तव निर्मित हैं। इन्हीं के शिष्य रत्नशेखरसरि ने त्रिसन्धान-स्तोत्रादि के द्वारा कुछ नए मार्गों का उद्घाटन किया तो समयसुन्दर गरिण (वि. सं. 1651, ने प्रायः 3 स्तुति काव्यों द्वारा अपने अर्चनापुष्प चढ़ाए हैं। - इस प्रकार स्तोत्रावलीकार पू० उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज के पूर्ववर्ती अनेक प्राचार्यों ने स्तुति-काव्य रचना के क्षेत्र में अनेक विधानों को जन्म दिया, विविध विषयों का समावेश किया तथा 'प्रतिभा का सर्वाधिक प्रयोग परमात्मा के गुणगान में ही होना चाहिए' इस धारणा की प्रबलरूप से पुष्टि की। यही कारण था कि-उपाध्याय जी ने भी ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः' वाली उक्ति को सार्थक बनाते हुए अपने पवित्र अन्तःकरण से उद्भूत भावों को भगवत्स्तुतिरूप वाक्यपुष्पों के माध्यम से अर्पित कर विश्वसाहित्य को सुवासित किया। उपाध्याय श्रीमद्यशोविजय जी महाराज सोलहवीं शती के अन्तिम चरण में उत्पन्न महान् विद्वान् जैन मुनि श्रीमद् यशोविजय जी महाराज ने लगभग 100 वर्ष की पूर्णायु प्राप्त कर प्रात्मकल्याण एवं लोककल्याण की कामना से विभिन्न तीर्थों में विराजित जिनेश्वरों की भक्ति से प्रेरित होकर अनेक स्तोत्रों की रचना की है। आपकी रचना-शक्ति अद्भुत एवं पूर्ण वेगवती थी। ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश इतना प्रखर था कि साहित्य का कोई भी क्षेत्र उनसे अछूता नहीं था। साथ ही वे संस्कृत, प्राकृत, गुजराती (कहीं कहीं मारवाड़ी पद्धतिवाली गुजराती) और हिंन्दी भाषा में अबाधगति से रचना करने में भी पटु थे। विषय की दृष्टि से उनका