________________ [ 165 यथासमय उपलम्भ होते रहने के कारण उनका तो नियत अनुपलम्भ होता ही नहीं, हाँ, जो बाह्य अर्थ अयोग्य हैं अर्थात् जिनमें प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण किये जाने की योग्यता ही नहीं है जैसे परमाणु आदि, उनके उपलम्भ की कदापि सम्भावना न होने के कारण उनका नियत अनुपलम्भ अवश्य होता है, किन्तु उससे उनका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि घट, पट आदि वस्तुओं के अस्तित्व का लोप हो जाने के भय से अनियत अनुपलम्भ को आश्रय का ग्राहक न मानकर नियतानूपलम्भ को ही प्रभाव का ग्राहक माना जाता है। वैसे अतीन्द्रिय वस्तुमात्र के अस्तित्व का लोप हो जाने के भय से अयोग्यानुपलम्भ को प्रभाव का ग्राहक न मानकर योग्य अनुपलम्भको ही प्रभाव का ग्राहक माना जाता है / फलतः परमाणु का अनुपलम्भ योग्य अनुपलम्भरूप न होने के कारण परमाणु के अभाव का साधक नहीं हो सकता। परपक्ष को दोषयुक्त ठहराने के दृढ़ अभिनिवेश से न्यायशास्त्र की उपर्युक्त युक्तियों का अवलम्बन लेकर बाह्यार्थभङ्गमूलक अनात्मवाद के खण्डन का जो यह प्रकार है, हे भगवन् महावीर ! वह आपके ही न्यायामृतमहोदधि के बिन्दु का उद्गार है // 51 / / स्याद्वादतस्तव तु बाह्यमथान्तरङ्ग, सल्लक्षणं शबलतां न जहाति जातु। एकत्वमुल्लसति वस्तुनि येन पूर्णे, ज्ञानाग्रहादिकृत-दैशिकभेद एव // 52 // हे भगवन् ! आपके मतानुसार बाह्य अथवा प्रान्तर कोई भी वस्तु स्याद्वाद की परिधि को लाँघकर सत् वस्तु के लक्षण शबलता अर्थात् अनेकान्तरूपता का परित्याग कदापि नहीं करती और इसी कारण पूर्ण अर्थात् अनन्तधर्मात्मक वस्तु में ज्ञान, अज्ञान आदि धर्मों द्वारा जो किसी प्रकार विरुद्ध हैं, अव्याप्यवृत्ति-भेद की सिद्धि भी होती है और