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________________ 164 ] होते हैं और अन्त में अनेकान्तरूपी वायु से आहत हो उसी में समां जाते हैं, उनका निरपेक्ष-प्रामाण्य नहीं रह जाता। ___ इस कथन का आशय यह है कि अवयवी के विरुद्ध विभिन्नवादियों से उठाये जानेवाले प्रश्नों, आक्षेपों और सन्देहों का निराकरण न्यायशास्त्र की जिन यूक्तियों से किया जाता है उनका बल-संवर्धन तथा अनुप्राणन स्याद्वाद की ओर से इन युक्तियों का विनियोग किया जाना न्याय्य है / और वस्तुस्थिति तो यह है कि स्याहाद की सरणि से ही उनका उपयोग सफल भी हो सकता है क्योंकि स्याहाद के अनग्रह से वञ्चित होने पर समस्त मत एकान्तवादी हो जाने से निर्बल, निस्सार और इसीलिये अभिमत पक्ष के साधन एवं समर्थन में अक्षम हो जाते हैं // 50 // नारणोरपि प्रतिहतिश्च समानयोगक्षेमत्वतः किल धियेति न बाह्यभङ्गः / योग्या च नास्ति नियतानुपलब्धिरुच्चै नैरात्म्यमित्युपहतं नयवल्गितैस्ते // 51 // ज्ञान की सत्ता मानकर जिस प्रकार अवयवी का निराकरण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार मूल अवयव परमाणु का भी निराकरण नहीं किया जा सकता। क्योंकि ज्ञान और परमाणु के योग-क्षेत्र समान हैं। अर्थात् जो आपत्तियाँ अथवा अनुपपत्तियाँ परमाणु-पक्ष में उठ सकती हैं तथा ज्ञानपक्ष में उन्हें दूर करने के लिए जिन युक्तियों को अपनाया जा सकता है वे युक्तियाँ परमाणु-पक्ष में भी अपनायी जा सकती हैं / फलतः बाह्य अर्थ का अर्थात् ज्ञान से भिन्न वस्तु का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। नियत अनुपलम्भ के बल से भी बाह्य अर्थ का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि जो बाह्य अर्थ योग्य अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण किये जाने योग्य हैं, जैसे घट-पट आदि, उनका
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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