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________________ [ 163 घूमने लगता है उस समय भी वह अंशी स्वयं न गतिशील होता है और न घूमता ही है किन्तु निश्चल और स्थिर रहता है, फलतः गति एवं गतिराहित्य जैसे विरुद्ध धर्मों का समावेश एक वस्तु में नहीं होता // 46 / / संयोगतद्विरहयोश्च गतिप्रकारभेदेन तन्निलयता-तदभावयोश्च / वृत्तिः स्वरूपनिरतैव च चित्रमेक मित्यादि ते नयमतं समयाब्धिकेनः // 50 // एक वस्तु में संयोग और संयोगाभाव तथा तद्देशाश्रितत्व और तद्देशानुश्रितत्व की उपपत्ति प्रकार भेद से अर्थात् अवच्छेदकभेद से हो जाती है, जैसे उसी वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग और मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव अथवा शाखाद्यवच्छेदेन संयोग और वृक्षत्वावच्छेदेन संयोगसामान्याभाव रहता है, एवं एक ही वस्तु उसी देश में एक काल में प्राश्रित और कालान्तर में अनाश्रित होती है। अर्थात उसी वस्तु में एककालावच्छेदेन तद्देशाश्रितत्व और अन्यकालावच्छेदेन तद्देशानाश्रितत्व रहता है / अवयवों में अवयवी का अवस्थान स्वरूप निरत है अर्थात् अवयवी अपने अवयवों में न तो एकदेशेन रहता है और न समग्रदेशेन रहता है / किन्तु अपने निजी स्वरूप से व्यासज्यवृत्ति होकर रहता है / चित्ररूप अनेकरूपों की समष्टि नहीं है किन्तु एक स्वतन्त्र रूप है। न्यायशास्त्र के ये मत हे भगवन ! आपके सिद्धान्तसमुद्र के फेन के समान हैं; क्योंकि जिस प्रकार फेन जलराशि के ऊपर उसी का रूप-रंग धारण किए हुए तैरता हुआ दिखाई पड़ता है और वायु का प्राघात-पाकर उसी में विलीन हो जाता है, जलराशि से पृथक् उसका अस्तित्व नहीं रह जाता, उसी प्रकार न्यायशास्त्र के मत में स्याद्वादसिद्धान्त के ऊपर उसकी ही जैसी मनोरमता धारण किए दृष्टिगोचर
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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