________________ [ 116 हे महावीर स्वामी ! सभा में अलौकिक श्रव्य ध्वनि, अभिनव छत्र एवं सुन्दर चामर समूह, हृदय को हरण करनेवाले मङ्गल वाद्य तथा श्रेष्ठ पुष्पों वाले अशोक वृक्ष से शोभित सिंहासन पर विराजमान ऐसे भव्य-भा-मण्डल-मण्डित आपके स्वरूप का ध्यान करके कौन विद्वान् 'सालम्बन-योग' को प्राप्त नहीं करता है ? // 2 / / गाढाभ्यस्तात् त्रिभुवनगुरो ! कि न तस्मादकस्मात्, क्षीरणे फापे प्रभवति निरालम्बनो योगमार्गः। यस्मादाविर्भवति भवतो दर्शनं केवलाख्यं, लक्ष्यावेधप्रगुरिणतधनुर्मुक्तकाण्डोपमानात् // 3 // हे त्रिभुवन गुरु ! उस 'सालम्बन-योग' के गहन अभ्यास से पाप के क्षीण हो जाने पर अकस्मात्-सहज ही क्या 'निरालम्बन-योग' नहीं हो जाता है ? (और जब वह. निरालम्बन-योग होने लगता है तो) लक्ष्य को ठीक तरह से बींधने के लिये चढ़ाये गये धनुष से छोड़े हुए बाण के समान (कैवल्यरूप आपके दर्शन की प्राप्ति होती है / ) अर्थात् आपके दर्शनरूप कैवल्य-मुक्ति की प्राप्ति होती है / / 3 / / मध्ये त्वाभ्यां भवति चरमावञ्चके नाम योगे, दिव्यास्त्राणां परमखुरली मोहसैन्यं विजेतुम् / तत्प्रौढेकक्रम-परिणमच्छास्त्र-सामर्थ्ययोगा, रोगातकोज्झितपदमिताः प्रातिभज्ञानभाजः // 4 // हे वीरप्रभो ! तदनन्तर इन सालम्बन एवं निरालम्बन योगों के बीच 'चरमावञ्चक' योग में मोहरूप सेना को जीतने के लिये दिव्य अस्त्रों का परम अभ्यास होता है। तब उस योग के प्रौढ़ तथा मुख्य क्रम की परिणति से शास्त्रसामर्थ्य-योग बनते हैं और उसके फलस्वरूप