________________ 120 ] * साधक रोग एवं भय से मुक्त पद को प्राप्त कर 'प्राति भज्ञान' सम्पन्न बन जाते हैं // 4 // प्रास्तामस्ताहितहितदृशो दूरवार्ता तवासी, इच्छायोगादपि वयमिमे यत्सुखं सम्प्रतीमः / तस्याधस्तात् सुरपतिपदं चक्रिणां चापि भोगाः, योगावेशाद्यपि च गदितं स्वर्गपुण्यं परेषाम् // 5 // हे वीर जिनेश्वर ! अहित तथा हित की दृष्टि जिनकी अस्त हो चुकी है ऐसे हम उन सालम्बन-निरालम्बनादि योगों की बात तो दूर रहे–केवल इच्छायोग-भक्तियोग से ही जो सुख प्राप्त करते हैं उसके समक्ष इन्द्र का पद, चक्रवर्तियों के भोग तथा योग की क्रियाओं से प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि-पुण्य जिनका कथन अन्य मतानुयायी करते हैं, वे सब तुच्छ हैं // 5 // सेयं भक्तिस्तव यदि मयि स्थैर्यवत्येव भर्तस्तत्प्रत्यूह तदिह कलयन् कामये नैव मुक्तिम् / पूर्व पश्चादपि च विरहः कार्यतो यश्च न स्यात्, भूतो भावी तदयमुभयोः किं न मुक्तेविभागः // 6 // .. हे नाथ ! ऐसी यह आपकी भक्ति यदि मुझ में अटल बनी हुई है ही, तो मैं उस भक्ति में विघ्नरूप बनाने के लिये मुक्ति की कामना नहीं करता हूँ (अर्थात् मुक्ति आपकी भक्ति के लिये बाधक है, अतः वह मैं नहीं चाहता हूँ / ) क्योंकि जो पहले कार्य से विरह होता है वह 'भूत-विरह' तथा जो बाद में कार्य से विरह होगा वह ‘भावी-विरह' ऐसे दोनों विरहों का न होना क्या मुक्ति का विभाग नहीं है ? अर्थात् मुक्ति मिलने पर पूर्व में की गई भक्ति छूट जाती है और मुक्ति हो जाने से भविष्य में भक्ति करने का अवसर नहीं मिलता, ऐसी