________________ [ 121 मुक्ति की कामना निरर्थक है // 6 // सुञ्चाम्येनां न खलु भगवन् ! क्वापि दुःखे सुखे वा, तत्त्वज्ञाने प्रणयति पुनः सङ्गते सा यदास्ते / ईद्विषविष समयतः शिक्षरणीयास्तया स्युपैनाभेदप्रणयसुभगा सा ज्ञमज्ञं च रक्षेत् // 7 // हे भगवन् ! आपकी इस भक्ति को मैं दुःख में अथवा सुख में किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता है क्योंकि वह तत्त्वज्ञान हो जाने पर भी साथ ही रहती है। तथा असहनशीलता और द्वेष-पूर्वक बनाये गये विषरूप शास्त्रों से आपकी भक्ति के द्वारा वे लोग बचाये जा सकगे और इस प्रकार आपकी समता और प्रेम से वह भक्ति विद्वान् एवं मूर्ख दोनों की रक्षा करे। ___ अर्थात् आपकी भक्ति तत्त्वज्ञान होने पर भी विद्वान् का साथ न छोड़ने से तथा ईषादिजनित विषरूप शास्त्रों से अज्ञ बने हुए लोगों को शिक्षा देने से दोनों की रक्षा करे-करती है। इसलिये मैं आपकी भक्ति नहीं छोड़ता हूँ / / 7 // प्राणायामैः किमतनुमरुन्निग्रहक्लेशचण्डः, किं वा तीव्रव्रतजप-तपः-संयमैः कायदण्डः / ध्यानावेशैलंयपरिणतंतृभिः किं सुषुप्तेरेका भक्तिस्तव शिवकरी स्वस्ति तस्यै किमन्यैः // 8 // हे जिनेश्वर ! दीर्घकाल तक श्वास-प्रश्वास के रोकने से अतिशय कष्ट पहुँचाने वाले प्राणायामों से क्या लाभ है ? अथवा तीव्र जप, तप और संयम द्वारा काया को दण्ड देने से भी क्या लाभ है ? अथवा सुषुप्ति अवस्था के सहोदर-रूप ध्यान लगाने से लययोग की उपलब्धि