________________ 122 ] से भी क्या लाभ है ? कुछ नहीं। क्योंकि आपकी एकमात्र भक्ति ही कल्याण करने वाली है। उसका भला हो / और दूसरों से क्या करना है? // 8 // मोहध्वान्तप्रशमरविभा पापशेलैकवज्र, व्यापत्कन्दोद्दलन-परशुर्दुःखदावाग्निनीरम् / कुल्या धर्म हृदि भुवि शमश्रीसमाकृष्टिविद्या, कल्याणानां भवनमुदिता भक्तिरेका (व) त्वदीया // 6 // हे परमात्मन् ! एक आपकी भक्ति ही मोहान्धकार को नष्ट करने में सूर्य की किरणों के समान है। पापरूपी पर्वतों को खण्ड-खण्ड करने के लिये वज्र के समान है। विशिष्ट आपत्तिरूप वृक्ष को काटने के लिये कुठाररूप है। दुःखरूप दावानल को शान्त करने के लिये जल के समान है / हृदय में धर्मरूप पौधों के लिये क्यारी के समान है, पृथ्वी पर शमरूपी श्री के लिये आकर्षण-विद्या के समान है तथा समस्त कल्याणों के लिए आगाररूप कही गई है // 6 // त्वं मे माता त्रिभुवनगुरो ! त्वं पिता त्वं च बन्धु- . स्त्वं मे मित्रं त्वमसि शरणं त्वं गतिस्त्वं धृतिमें। उद्धर्ता त्वं भवजलनिधेनिवृतौ त्वं च धर्ता, त्वत्तो नान्यं किमपि मनसा संश्रये देवदेवम् // 10 // हे त्रिभुवनगुरो ! आप ही मेरे माता, पिता, बन्धु, मित्र, शरण, गति और धैर्य हो / आप ही भवसागर से उद्धार करनेवाले तथा मोक्ष देनेवाले हो। हे देव ! आपको छोड़कर किसी अन्य देव का मैं मन से भी आश्रय नहीं चाहता हूँ // 10 //