________________ [ 170 यदि यह कहा जाए कि जिस समय वस्तु के किसी अंश के साथ आवरण का सम्बन्ध होता है उस समय वह वस्तु अथवा उसका परिणाम आवृत नहीं होता उन दोनों का दर्शन तो उस समय भी होता है, कमी केवल इतनी ही रहती है कि उस समय उसके परिणाम के विशेष रूप का दर्शन नहीं होता। अर्थात् अंश के प्रावरण काल में यह निश्चय नहीं हो पाता कि इस वस्तु का परिणाम कितना है ? यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसका सीधा अर्थ यही होता है कि अंश के साथ आवरण का सम्बन्ध होने की दशा में वस्तु और उसके परिमाण तो आवत नहीं होते पर परिमाण की हस्तत्व-द्विहस्तत्व आदि जाति आवृत हो जाती है, किन्तु इस बात को स्वीकृत करना सम्भव नही है, क्योंकि ऐसा मानने पर जब समान परिमारण के दो द्रव्यों में किसी एक ही द्रव्य का अंशावरण होगा तब दूसरे द्रव्य के परिमारण में हस्तत्वादि जाति का ज्ञान न हो सकेगा, कारण कि जाति दोनों द्रव्यों के परिमाण में एक ही है और वह अंशावरणवाले द्रव्य के परिमाण में आवृत हो चुकी है। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि परिमाण की पहचान में पटुता प्राप्त किये हुए व्यक्ति को समान परिमाण वाले प्रावरणहीन द्रव्य के आधार पर अंशावत द्रव्य के परिमाण में भी हस्तत्व आदि जाति का निश्चय होता है पर जाति को आवृत मानने पर न हो सकेगा। तीसरा दोष यह है कि जिस द्रव्य का परिणाम चौड़ाई और लम्बाई दोनों ओर हाथभर है और चौड़ाई की और आधा भाग ढका है तथा लम्बाई की ओर पूरा भाग खुला है चौड़ाई की ओर उस द्रव्य के परिमाण की जाति का अर्थात् उसके हाथ भर होने का निर्णय तो नहीं होता पर लम्बाई की ओर होता है किन्तु जाति को प्रावृत मानने पर यह निर्णय न हो सकेगा। इस दोष के निवारणार्थ यदि परिमाणगत जाति को द्रव्य की केवल चौड़ाई की ओर ही आवृत और लम्बाई की ओर अनावृत माना जाएगा तो जाति को चित्र अर्थात् अपेक्षाभेद से आवृतत्व और अनावृतत्व