________________ [ 171 रूप विरुद्धं-धर्मों का आश्रय मानना होगा, फिर जाति को जब इस प्रकार अनेकान्तरूप मानना ही पड़ता है तब द्रव्य को अनेकान्तरूप न मानने में कोई कारण नहीं रह जाता। अतः वस्तु की अनेकान्तरूपता निर्विवादरूप से सभी को स्वीकार करना अनिवार्य है / / 56 / / एकत्र देशभिदयानुभवेन कम्पाकम्पावपि प्रकृतवस्तुनि भेदको स्तः / धीविप्लवोपगमतश्च न चेद्विभाग संयोगभेदपरिकल्पनया च घोषः // 57 // जिस समय किसी वृक्ष के एक भाग में कम्प होता है और दूसरा भाग निष्कम्प रहता है उस समय वृक्ष में कम्पयुक्त भाग की ओर कम्प का और निष्कम्प भाग की ओर कम्पाभाव का अनुभव होता है / इसलिये अवयव के भेद से वक्ष में कम्प तथा कम्पाभावरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश माना जाता है और इसी कारण वृक्ष की अनेकान्तरूपता भी माननी पड़ती है। यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के किसी अवयव में कम्प तथा अन्य अवयव में कम्पाभाव की दशा में वक्ष में जो कम्प का अनुभव होता है वह भ्रम है और भ्रम से विषय की सिद्धि नहीं होती, अतः उस दशा में वृक्ष निष्कम्प ही रहता है, फलतः कम्प और कम्पाभाव के समावेश के आधार पर वक्ष की अनेकान्तरूपता सिद्ध नहीं हो सकती, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर कम्पयुक्त भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने से जैसे वृक्ष में कम्प का भ्रम होता है उसी प्रकार निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर भी वक्ष के कम्प का भ्रम होने लगेगा, और वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय यदि उस भाग में वृक्ष को भी कम्पयुक्त माना जायगा तब वृक्ष में कम्प का ज्ञान यथार्थ होगा और वह निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग होने पर नहीं होगा किन्तु कम्पयूक्त भाग की ओर नेत्र का संयोग होने से ही होगा। क्योंकि इस पक्ष में यह नियम माना