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________________ 172] जाएगा कि किसी द्रव्य में अव्याप्त होकर रहनेवाले पदार्थ का दर्शन तभी होता है जब उस द्रव्य के साथ नेत्र का संयोग उस भाग में हो, जिस भाग में वह द्रव्य इस अव्याप्यवत्ति धर्म का आश्रय होता हो, यदि यह कहा जाय कि वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को निष्कम्प मानने के पक्ष में भी यह नियम माना जाएगा कि वृक्ष में कम्प का भ्रम होने के लिये वक्ष के जिस भाग में कम्प होता है उस भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग अपेक्षित है, अतः निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष के साथ नेत्र का संयोग न होने से वृक्ष में कम्प के भ्रम की आपत्ति न होगी, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस नियम की कल्पना का कोई आधार नहीं है, कम्पयुक्त भाग की ओर ही दृष्टि पड़ने पर वृक्ष में कम्प का ज्ञान होना और निष्कम्प भाग की ओर दृष्टि पड़ने पर कम्प का ज्ञान न होना ही उक्त नियम की कल्पना का आधार है, यह कथन उचित नहीं है क्योंकि इस घटना की उपपत्ति वक्ष में अव्याप्यवति कम्प का उदय मान लेने से भी हो जाती है, और वृक्ष के एक भाग में कम्प होने के समय वृक्ष को कम्पयुक्त मानने के पक्ष में निष्कम्प भाग की ओर वृक्ष पर दृष्टि पड़ने से वृक्ष में कम्प के ज्ञान का जन्म रोकने के लिये जिस नियम की चर्चा की गई है उस के आधारहीन होने का प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि वृक्ष में अव्याप्त होकर रहनेवाले संयोगादि अन्य धर्मों की उस प्रकार की प्रतीति के निवारणार्थ वह नियम पहले से ही स्वीकृत है। दूसरी बात यह है कि यदि अवयवी में प्रतीत हानेवाले कम्प को अवयवगत मानकर अवयवी को निष्कम्प माना जाएगा तो अवयवी में प्रतीत होनेवाले अन्य समस्त धर्मों में भी यही न्याय लगेगा और उसका परिणाम यह होगा कि अवयवी निर्धर्मक होने से तुच्छ हो जाएगा और अवयवी के तुच्छ होने पर सर्वत्र शून्यवाद की दुन्दुभि बज उठेगी / तात्पर्य यह है कि जो धर्म जहाँ प्रतीत होता है यदि वहाँ
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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