________________ [ 173 उसका अस्तित्व मानना आवश्यक न होगा तो किसी दूसरे स्थान में उसका अस्तित्व क्यों माना जाएगा? फलतः धर्म का अस्तित्व सर्वथा लुप्त हो जाएगा, प्रतीत होनेवाले समस्त पदार्थ अस्तित्वहीन हो जाएँगे, प्रतीतियां वस्तुमूलक न हो वासनामूलक हो जाएँगी और प्रतीतियों के वासनामात्रमूलक होने का ही अर्थ है शून्यवाद / ___तीसरी बात यह है कि शाखा में कम्प होने के समय यह प्रतीति होती है कि वृक्ष अपने शाखाभाग में कम्पित हो रहा है। इस प्रतीति में वृक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प का सम्बन्ध भासित होता है, अतः यदि शाखा को कम्पयुक्त एवं वृक्ष को निष्कम्प माना जाएगा तो उक्त प्रतीति को वृक्ष और शाखा में भासमान कम्प के सम्बन्धों के विषय में भ्रमात्मक मानना होगा, क्योंकि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर केवल वक्ष के साथ ही कम्प का सम्बन्ध नहीं होगा यह बात नहीं है अपितु शाखा के साथ भी वह कम्पका सम्बन्ध न होगा जो उक्त प्रतीति में शाखा के साथ भासित होता है / अभिप्राय यह है कि उक्त प्रतीति में वृक्ष के साथ कम्प का समवाय-सम्बन्ध तथा शाखा के साथ अवच्छेदकता-सम्बन्ध भासित होता है। पर वृक्ष को निष्कम्प मानने पर ये दोनों ही सम्बन्ध नहीं बन सकते। यदि यह कहा जाए कि वृक्ष को निष्कम्प मानने पर वृक्ष के साथ कम्प का समवाय-सम्बन्ध मानने में कोई बाधा नहीं है, तो ठीक नहीं है, क्योंकि जब कोई धर्म किसी अवयवी में अंशतः समवेत होता है तभी उसका अवयव उस धर्म का अवच्छेदक होता है, अन्यथा नहीं। यदि यह कहा जाय कि उक्त प्रतीति में वक्ष और शाखा दोनों के साथ कम्प के समवाय-सम्बन्ध का ही भान होता है, किन्तु वृक्ष के निष्कम्प होने से उसमें समवायसम्बन्ध से जो कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति भ्रम है, और शाखा के सकम्प होने से शाखा में जो समवाय सम्बन्ध से कम्प का भान होता है उस अंश में वह प्रतीति प्रमा है, तो यह कल्पना भी