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________________ [166 विद्वान् भा नहीं जान पाते, वे इस दयनीय अज्ञानदशा में क्यों पड़े रहते हैं ? इसलिये कि जब उन्हें किसी वस्तु का अंशतः तत्त्वदर्शन प्राप्त होता है तो वे उसी को वस्तु की पूर्णता मान बैठते हैं, उन्हें अहङ्कार हो जाता है कि उन्होंने उस वस्तु को पूर्णरूपेण जान लिया है, अब उन्हें उसके सम्बन्ध में कुछ और जानना शेष नहीं है / फलतः उस वस्तु के विषय में अन्य नवीन जानकारी प्राप्त करने की आकांक्षा समाप्त हो जाती है, उनकी यह मनोवृत्ति क्यों होती है ? __इसलिये कि एक ऐसी मिथ्यादृष्टि ने जो नितान्त निन्द्य एवं त्याज्य है, उन्हें चिरकाल से आक्रान्त कर रखा है। अतः जब तक इस मिथ्या दृष्टि से उनका पिण्ड नही छूटता तब तक उनकी इस अज्ञानदशा का अन्त होना असम्भव है। और यह पूछा जाय कि उनका इस दृष्टि से पिण्ड छुड़ाने का क्या उपाय है तो इसका एक ही उपाय है कि वे अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों की शरण में जाकर उनसे तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करें // 55 // प्रावृत्यनावृतिपदेऽपि समा दिगेषा, जात्यावृतौ भवति वैनयिको कथं धीः / चित्रा च जातिरवयव्यपि तद्वदेव, चित्रो भवन्न तनुते भुवि कस्य चित्रम् // 56 // जो रीति एक ही वस्तु के दृष्ट और अदृष्ट होने में तथा ज्ञायमान और अज्ञायमान होने में बताई गई है वही उसके प्रावृत तथा अनावृत होने के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिये / अर्थात् जिस प्रकार वही वस्तु अंशभेद से दृष्ट भी होती है और अदृष्ट भी, ज्ञायमान भी होती है और प्रज्ञायमान भी, उसी प्रकार अशभेद से वही वस्तु प्रावृत भी हो सकती है और अनावृत भी। फलतः आवृतत्व और अनावृतत्व के सम्बन्ध से भी वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता सिद्ध होती है। .
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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