________________ भवत्प्रसादाद् भवदिद्धबुद्धिलघुर्महानेव तवास्तु दासः। '' ग्रावाऽप्यधिष्ठापकसन्निधानाच्चिन्तामणिः किं न जगन्निषेव्यः // 34 / / हे देव ! आपके द्वारा प्रदीप्त बुद्धिवाला आपका छोटा-सा दास भी आपके प्रसाद से बड़ा ही है, क्योंकि अधिष्ठापक के समीप में होने से पत्थर भी चिन्तामणि के समान जगत् के लोगों से सदा सेवनीय ही होता है // 34 // अयं जनो यद्यपि कुन्थुरेव, (श्रुताढयनाग)'प्रभृतीनवेक्ष्य। भजे तथापि प्रसभं कथायां, भवत्प्रसादात् परवारणत्वम् // 35 // हे देव ! यह जन श्रुताढ्यनाग-पण्डितों में हस्ती के समान, महापण्डित, कोविदकुञ्जर आदि को देखकर यद्यपि कुन्थु-बहुत छोटा ही है, तथापि आपके अनुग्रह से कथा-शास्त्रार्थ, वाद-विवाद-में दूसरों को मूक बनाने में समर्थ है अथवा परपक्षों को पराजित करने के लिये पण्डितकुंजर के समान है // 35 // एकान्तमुद्रामधिशय्य शय्यां, नयव्यवस्था किल या प्रमीला। तया निमीलन्नयनस्य पुंसः, स्यात्कार एवाञनिको शलाका // 36 // एकान्तमुद्रा एकान्तवाद)वाली शय्या पर सोकर नय-व्यवस्था नामक जो प्रमीला (निद्रा) है, उससे मुंदती हुई आँखोंवाले पुरुष को स्यात्कार–स्याद्वाद ही अञ्जन करने की शलाका है-अर्थात् एकांतवादियों को नैगम-निश्चय-व्यवहारादि नयों से दिव्यदृष्टि देनेवाला अनेकान्तवाद ही है / / 36 // एकान्तभेदः किल धर्ममिव्यवस्थया विष्णुवदे(वस्तुषु नै)व लभ्यः / गोरश्वतेव प्रविभिद्यते चेद्, गोत्वं लभेत्कस्तदिदं विशेषः // 37 // 1. अत्र कश्चन पाठस्त्रुरितः स चानेन पाठेन समाधेयः /