________________ [ 35 वस्तुओं में धर्म-धर्मिभाव के कारण एकान्तभेद नहीं हो सकता जैसे गो से अश्व / तथा धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद होता हो तो गोत्व कहीं भी नहीं रह सकता अर्थात् गो में भी नहीं रह सकता है यह इसमें विशेष है। प्रत्येति जल्पन् समवायमेकं, गवीव गोत्वं न कथं तुरङ्ग। प्राधार तैक्येऽपि समानयुक्तेस्तया प्रतीकारकृतिर्न युक्ता // 38 // जो समवाय सम्बन्ध को एक मानता है (अर्थात् एक ही समवाय है अनेक नहीं) वह गो के समान अश्व में गोत्व को क्यों नहीं देखता ? इनमें आधार की एकता रहने पर भी समवाय के कारण इस दोष का प्रतीकार नहीं हो सकता // 38 // . अभेदभेदात्किल धर्म मिविशिष्टबुद्धिस्तव शासने नु तु)। तदात्मतावृत्त्यनियामकत्वमेकान्तताभाजि ततो न दोषः // 3 // परन्तु स्याद्वादं में धर्म और धर्मी में भेद और अभेद दोनों है, अभेद के कारण धर्म धर्मात्मा प्रतीत होता है और भेद के कारण धर्म से विशिष्ट प्रतीत होता है। एकान्त अभेदपक्ष में सर्वथा अभेद प्रतीत होना चाहिए और एकान्त भेद पक्ष में कोई भी धर्म अपने वास्तविक धर्म से भिन्न अनेक धर्मियों में प्रतीत होना चाहिये / एकान्त भेद मानने पर धर्म की वृत्ति का नियम नहीं रह सकता। गोत्व धर्म है वह बैल में ही रहता है अश्वादि में नहीं, यह व्यवस्था एकान्तभेद पर नहीं रह सकती / / 36 // एकत्र वृत्तौ हि विरोधभाजोर्या स्यादवच्छेदकभेदयात्रा। द्रव्यत्वपर्यायतयोविभेदं, विजानतां सा कथमस्तु नस्तु // 40 // दो विरुद्ध धर्म जब धर्म में रहते हैं तब नैयायिक आदि अवच्छेदक