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________________ 36 ] भेद से उनकी सत्ता मानने हैं / वृक्ष में मूल के अवच्छेद से कपिसंयोग का अभाव है और शाखा के अवच्छेद से कपिसंयोग है परन्तु स्याद्वादी द्रव्य-पर्याय का भेद मानते हैं। इसलिये अवच्छेदकों के भेद की पावश्यकता नहीं रहती है, यही स्याद्वादमत की विशिष्टता है // 40 // .. भेदः पृथग भूतिरथान्यभावो, द्विधेति तत्र प्रथमं वदन्ति / विभक्तदेशेषु तथान्त्यमन्ये, स्वधर्ममित्वविभागहेतुम् // 41 // भेद दो प्रकार का है 1 - पृथग्भाव और २-अन्यभाव / जो पदार्थ भिन्न देशों में रहते हैं उनमें पृथग्भाव होता है, जैसे दो वृक्ष भिन्न-भिन्न स्थान पर हैं उनमें पृथग्भाव है। और जब धर्म तथा धर्मी दो वक्षों के समान भिन्न-भिन्न देशों में नहीं हैं वहाँ उनमें पृथक्ता नहीं है अतः उनमें अन्यभाव है। इस अन्यभाव के कारण उनमें एक धर्म और दूसरा धर्मी है, यह वैशेषिक आदि का मत है // 41 // प्रभेद-भेदोल्लसदेकवृत्ती, तेषामवच्छेदकमप्यमृग्यम् / स्वभावयोरेव यदेकवृत्तौ, जागर्त्यवच्छेदकभेदयाच्या // 42 // जिनके मत में एक वस्तु अभेद और भेद से रहती है उनको अवच्छेदक का अन्वेषण नहीं करना पड़ता, क्योंकि स्व और प्रभाव को एक में रहना हो तो अवच्छेदक के भेद को मानना पड़ता है। कपिसंयोगाभाव को एक वृक्ष में रहने के लिये शाखा और मूल इन दो अवच्छेदकों की आवश्यकता रहती है परन्तु गोत्व अभेद और भेद दोनों के द्वारा गो रहता है उसे अवच्छेदकों के भेद की आवश्यकता नहीं // 42 // सदेव चेत् स्यादसदेव चेत् स्यादेकीभवेद्वा न जगद् भवेद्वा।। इमां क्षति सोढुमशक्नुवन्तस्त्वच्छासनं देव ! परे श्रयन्तु // 43 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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