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________________ [ 33 पुंसोऽतिशेषे पुरुषोत्तमत्वाद्देवाधिदेवः सकलांश्च देवान् / अन्यत्र कुत्राप्युपमानमुद्रा, कुवादिविज्ञानसमानशीला // 30 // हे जिनेश्वर ! आप पुरुषों में उत्तम होने से पुरुषोत्तम हो, देवाधिदेव होने से देवों में श्रेष्ठ हो, आपकी उपमा की मुद्रा कुवादियों के के विज्ञान के समान शीलवाली कहीं भी अन्यत्र नहीं है अर्थात् आप आपके ही समान हैं / / 30 / / त्वं शङ्करो भासि महावतित्वाद्ब्रह्माऽसि लोकस्य पितामहत्वात् / विष्णुविनेतः पुरुषोत्तमत्वाज्जिनोऽसि रागादिजयाज्जनार्यः // 31 // हे देव ! महाव्रती होने से आप शङ्कर के समान शोभित होते हो, लोगों के पितामह होने से ब्रह्मा हो, पुरुषों में उत्तम होने से विष्णु हो और राग-द्वेष को जीतने से जनों के पूजन योग्य जिन हो // 31 // विधृत्य वाचं भवतः कथायामक्षान्त-पक्षान्तरसन्निवेशः। उदास्यमाने कुपरीक्षकोघे, त्वत्किङ्करः किं करवै विनेतः ? // 32 // हे स्वामिन् ! आपकी कथा में वारणी अर्थात् आपके सिद्धान्त को लेकर अक्ष-शास्त्रार्थ अथवा वाद-विवाद में विशेष दृष्टि से परपक्ष के सन्निवेशों का अन्त करनेवाला अथवा परपक्षों के निवेशों को नहीं सहन करने वाला आपका यह किङ्कर-सेवक मैं कुपरीक्षक-समूह के उदासीन होने पर क्या करूँ ? // 32 // कलौ कुकाले किल सत्परीक्षा-भिक्षाचराणां सुलभा न भिक्षा। कथा प्रथायामिति कोतिलाभे, त्वत्किङ्करस्यास्य गतिस्त्वमेव // 33 // वास्तव में इस कुकाल कलिकाल में सत्परीक्षा के भिक्षुकों को भिक्षा सुलभ नहीं हैं, इस बात की प्रसिद्धि होने पर इस आपके सेवक को यश प्राप्त कराने में आप ही गति हैं // 33 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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