________________ 32 ] यह जानते हुए भी जो कुमार्गानुयायी आपको नहीं मानते हैं उनमें ही वह दोष चला गया // 25 // कल्पद्रुसौरभ्यसुखं मिलिन्दा, भनन्त्यमी श्वाससमीरणं ते। अवाप्य कि नो गुरिसनं गुणज्ञाः, प्रमोदमेदस्वलतां व्रजन्ति ? // 26 // हे देव ! ये भँवरे आपके श्वासों की वायु को कल्पवृक्ष की सुगन्धि के सुख के समान मानते हैं। यह उचित ही है। क्योंकि गुणज्ञ लोग . गुणी को पाकर अधिक हर्ष को नहीं पाते हैं क्या ? // 26 // यज्ञो यतो जन्म लभन्नितान्तमद्यापि विश्वं विशदीकरोति / तस्मिन् शरीरे रुधिरामिषौ ले, गोक्षीरधाराधवले कथं नो ? // 27 // हे जिनेश्वर ! आपके जिस शरीर से जन्म पाकर आपका यश आम भी संसार को निर्मल करता है ऐसे आपके उस शरीर में रक्त और मांस गौदुग्ध की धारा के समान उज्ज्वल क्यों न हों ? // 27 // तम्मानसे कस्य न चर्करीति, चिरं चमत्कारभरं बुधस्य / आहारनीहारविधिविरेजे दृश्या(शा)प्यदृश्या(श्यो)भवतो यदुच्चैः // 28 // हे जिनेश्वर ! चर्मचक्ष से नहीं देखने योग्य आपकी जो आहार और नीहार की क्रिया अत्यधिक शोभित हुई वह किस विवेकशाली के मन में अतिशय आश्चर्यों को उत्पन्न नहीं करती है ? // 28 // गुणरमीभिः किल अन्मतोऽपि, विश्वं विनेतर्ननु योऽतिशेषे। नृधर्ममात्रेण कथं कृशाशाः, कुवादिनस्त्वां तमपह नुवन्ति // 26 // हे स्वामिन् ! इन लोकोत्तर गुणों से तथा जन्म से भी जो आप विश्व में सर्वातिशायी हैं, ऐसे आपको कुवादी हतभाग्य-जन मनुष्यधर्म मात्र से क्यों छिपाते हैं ? अर्थात् आपको देव क्यों नहीं मानते हैं ? // 26 //