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________________ से चुम्बित आपके उन नखों को नमस्कार हो / / 21 // नीलां जिनाधीश ! तवैव देहच्छायां नु कामं मनुते मनस्वी / * सम्भाव्यते नाम न रूपमोहक, त्रिनेत्रनेत्रानलभस्मनस्तु // 22 // हे जिनेश्वर ! मनस्वी लोग आपके शरीर की छाया को ही कामदेव का स्वरूप मानते हैं, क्योंकि शिव की नेत्राग्नि से जलकर राख बने हुए कामदेव के ऐसे रूप की तो सम्भावना ही नहीं है // 22 // कल्पद्रुकोटीगुणलुण्टनस्य, द्वारेव सङ्क्रान्तमिति त्वदीये / सौरभ्यमङ्गऽप्सरसां भ्रमभि भिमिलिन्दैः परिचीयते च / / 23 // हे जिनेश्वर ! करोड़ों कल्पवृक्षों के गुणों (सुगन्ध) को लूटने के कारण ही आपके अंग में सुगन्धि आ गई, जो कि आपके शरीर पर भ्रमर के समान मँडराते हुए अप्सराओं के नेत्ररूपी भ्रमरों से जानी जाती है / / 23 // परस्य रोगान् हरतस्त्व(ति त्व)दीये, रोगाः शरीरे न विशन्ति युक्तम् / विषव्यथानाशकरं जनानां, किं कालकूटान्यमृतं स्पृशन्ति ? // 24 // हे जिनेश्वर ! दूसरों के रोगों को दूर करनेवाले आपके शरीर में जो रोग प्रविष्ट नहीं होते हैं वह उचित ही है, क्योंकि विष की पीड़ा को नष्ट करनेवाले अमृत का क्या कालकूट स्पर्श करते हैं ? // 24 // न शोणिमारणं रुधिरामिषौ ते, न स्वेदखेदो दधतश्च मेदः / इदं विदन्तोऽपि कुपन्थिनो ये, त्वदक्षमास्तेषु जगाम खेदः // 25 // हे जिनेश्वर ! आपके रक्त एवं मांस लाली को धारण नहीं करते .. हैं और आपकी चर्बी भी पसीने और खेद को धारण नहीं करती है
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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