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________________ 76 ] काव्यों में शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा चित्रबन्धों को बहुधा स्थान दिया है और विविध वर्णनों से परिपुष्ट काव्य तत्त्वों का समावेश किया गया है।' श्री उपाध्याय जी ने भी इसी परम्परा में यह 'क्षामरणक-विज्ञप्तिकाव्य' लिखा है। इसमें दीव बन्दर स्थित तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयप्रभसूरीश्वरजी के प्रति भक्तिपूर्वक पर्युषणा-पर्व की समाप्ति के पश्चात् क्षमापना माँगी गई है। यह क्रमशः-१. पार्श्वप्रभु वर्णन, 2. दीवबन्दरनगरवर्णन, 3. गुरुवन्दना और 4. उपसंहार-रूप चार भागों में विभक्त है। प्रथम में 22, द्वितीय में 2, तृतीय में 25 और चतुर्थ भाग में 7 पद्य हैं। इस प्रकार.८४ पद्यों का यह काव्य उपजाति' अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित तथा प्रार्या छन्दों में निबद्ध है। ____वर्णन में विविध अलङ्कारों का समावेश चमत्कारी है / महाकाव्यों में आने वाली वर्णन-पद्धति पद-पद पर स्फुटित हुई है। समुद्र-वर्णन में उत्प्रेक्षात्रों का बड़ा ही रमणीय प्रयोग है और उनमें नवीन कल्पनाओं का प्रयोग हुआ है। कवित्व की अभिव्यक्ति और कल्पनाओं को उड़ान यहाँ अवश्य ही दर्शनीय है। कुछ पद्यों में 'परिसंख्या' और 'यमक का प्रयोग भी हुआ है। नगर, नगर की समृद्धि, जिनचैत्य और उपाश्रय आदि के वर्णन अतीव श्लाघनीय हैं। ___यह काव्य 'स्तोत्रावली' में पहली बार व्यवस्थित रूप से प्रकाशित किया गया है। . यहां ये विचारणीय प्रश्न है कि 'क्या रसात्मक स्तुति-स्तोत्रों में काव्य में गडुभूत (गन्ने में स्थित ग्रन्थि के समान) यमक जैसे शब्दा 1. ऐसे विज्ञप्ति-काव्यों का विस्तृत परिचय देखें-'सन्देशकाच्यों की सृष्टि में एक अभिनव मोड़-विज्ञप्ति-काव्य' ले. डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, महावीरपरिर्वाण स्मृति ग्रन्थ' संस्कृत-विद्यापीठ, नई दिल्ली प्रकाशन /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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