________________ [ 75 वाणी से खण्डन हो जाता है, ऐसे गच्छाधिपति की महत्ता को प्रस्तुत करती है। श्रीविजयदेवसूरि के पट्टरूप गगन में सूर्य के समान श्रीविजयप्रभसूरि जी के सम्बन्ध में की गई यह स्तुति तर्क-युक्ति से पूर्ण होने के साथ ही उनकी वाणी की प्रशंसा व्यक्त करती है। समवाय, अपोह तथा जाति की शक्ति, जगत्कर्त त्ववाद, प्रकृति, स्फोट तथा ब्रह्म इन अजैन मन्तव्यों का और सम्मति (प्रकरण) का उल्लेख इस कृति में है। इस रचना की गीति-पद्धति 'कडखा की देशी' है। श्रीपाल राजा को रास में इस पद्धति का प्रयोग हुआ है। ___ इस कृति के अनुकरण में श्रीविजयधर्मधुरन्धरसूरि ने प्रभातिया राग में गाने योग्य संस्कृत में विजयनेमिसूरिस्वाध्याय' नाम से निर्मित की है। ___ यह कृति 'स्तुति चतुर्विंशतिका' की प्रो० कापड़िया द्वारा लिखित भूमिका में, 'जैनस्तोत्रसन्दोह' (भाग 1) की मुनि श्रीचतुरविजय जी लिखित संस्कृत-प्रस्तावना में तथा गूर्जर साहित्य संग्रह (भा. 1) में पाठान्तरपूर्वक प्रकाशित हुई है। (12) श्रीविजयप्रभसूरिक्षामणक-विज्ञप्तिकाव्यम् श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के विभिन्न साहित्यिक दायों में 'विज्ञप्तिकाव्य' भी एक है। शृंगार-साहित्य और भक्ति-साहित्य की श्रीवृद्धि कालिदास के 'मेघदूत' नामक सन्देशकाव्य के रूप में प्रारम्भ होकर अनेकशः अनुकृतियों के द्वारा पर्याप्त हुई है। जैनमुनि अपने संयमीजीवन में रहते हुए गुरुभक्ति से प्रेरित होकर पर्युषण-पर्व पर की गई अाराधना एवं श्रीसंघ द्वारा सम्पादित धार्मिक कृतियों का विवरण देते हा चातुर्मास के कारण अन्यत्र विराजमान गुरुदेव के चरणों में विज्ञप्तिरूप काव्यों की रचना करके पत्र रूप में प्रेषित करते रहे हैं। ऐसे विज्ञप्तिकाव्यों की एक स्वतन्त्र परम्परा है जिनमें श्री प्रभाचन्द्र गणि (वि. सं. 1250) से अब तक लगभग 30 पत्रकाव्य बने हैं / इन