________________ 74 ] उपाध्याय ने भी 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की रचना 1024 पद्यों में की है जिनमें 21 द्वात्रिंशिकाएँ अनुष्टुप् में और एक रथोद्धता छन्द में है। इनके अतिरिक्त उक्त द्वात्रिंशिका अपने ढंग की अनूठी कृति है और यह इस स्तोत्रावली में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई है। इसमें क्रमशः समाधि-परिशीलन का महत्त्व विभिन्न दृष्टान्तों के द्वारा अभिव्यक्त हुअा है। समाधि-साम्य प्राप्त कर लेने पर होनेवाले आनन्द का वर्णन भी अनेक पद्यों में हुआ है / साधुजीवन में आने वाली समस्त कठिनाइयों से पार पाने का एकमात्र उपाय समाधिलाभ ही बताया गया है। समाधियुक्त योगियों को 'स्त्रैणे तृणे ग्राणि च काञ्चने च भवे च मोक्षे' सभी में साम्य होने के कारण उन्हीं में निर्वृतिसुख का अनुभव होता है। . __ पद्य 21 से 24 तक प्रसन्नचन्द्र, भरत चक्रवर्ती, आद्य अर्हन्माता भगवती और बड़े-बड़े हिंसकों के उच्चपद प्राप्ति में समाधिभाव को ही कारण बताया है / पद्य 25 से 30 तक कल्पसूत्र के छठे व्याख्यान में आए हए विशेषणों और उदाहरणों द्वारा समाधि-साम्य-प्राप्त मुनीन्द्रों की महिमा दिखलाई है। ____ इसमें प्रथम पद्य उपेन्द्रवज्रा और अन्तिम पद्य मन्दाक्रान्ता के अतिरिक्त उपजाति छन्द का प्रयोग हुआ है तथा दृष्टान्त, उपमा, रूपक और अर्थान्तरन्यास अलंकारों का प्रयोग रमणीय है। भाषा प्रौढ है और समासनिष्ठ शैली के कारण माधुर्यगुण का अच्छा विकास हुआ है। (11) स्तुतिगीति , प्रस्तुत कृति का नाम गीतिमय होने से 'स्तुतिगीति' रखा गया है। वैसे अन्यत्र इसका नाम 'षड्दर्शनमान्यताभितः श्रीविजयप्रभसूरिस्वाध्यायः' भी प्राप्त होता है। सात पद्यों में निबद्ध यह रचना.षडदर्शन की मान्यताओं का संक्षिप्त निर्देश करते हुए उनके तत्त्वों का जिनकी