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________________ 162 ] रखते हैं, इस अपेक्षा की पूर्ति के लिये द्रव्यपद के साथ एकवचन का प्रयोग अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति द्रव्य पद को नियेमन बहुवचनान्त मानने पर नहीं हो सकती। अत: बौद्ध बहुत्व की दृष्टि से भी द्रव्य पद को नित्य बहुवचनान्त नहीं माना जा सकता। द्रव्य पद को उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के आश्रय का वाचक मानने पर उसके नित्य बहुवचनान्न होने की शङ्का एक और प्रकार से भी होती है और वह प्रकार यह है कि जब द्रव्य पद उवत तीन धर्मों के प्राश्रय का वाचक होगा तो उन तीनों में प्रत्येक का स्वतन्त्ररूप से आश्रय के साथ अन्वय होगा और उस दशा में उत्पत्त्याश्रय, विनाशाश्रय तथा ध्रौव्याश्रय के रूप में तीन आश्रयों का बोध होगा। फिर जब नियमत: आश्रय बोधनीय होंगे तब उन तीन आश्रयों के बोधनार्थ द्रव्य पद का नित्य बहुवचनान्त होना अनिवार्य है, पद्य के उत्तरार्ध में इस दूसरी शङ्का का उत्तर प्रस्तुत किया गया है जो इस प्रकार है___द्रव्य पद से होनेवाले बाध को उत्पत्त्यादि के आश्रयत्रय का भान नहीं माना जासकता क्योंकि द्रव्य पद का प्रयोग उक्त आश्रयत्रय का बोध कराने के अभिप्राय से नहीं होता, अपितु उत्पत्त्यादि तीनों धर्मों के एक प्राश्रय का बोध कराने के अभिप्राय से होता है जिसकी पूर्ति द्रव्य से आश्रयत्रय का बोध मानने पर नहीं हो सकती। इस अभिप्राय की पूर्ति के लिए यह मानना आवश्यक है कि द्रव्य पद से उत्पन्न होनेवाले बोध में-आश्रय में उत्पत्ति आदि धर्मों का स्वतन्त्ररूप से अन्वय न होकर एक विशिष्ट अपररूप में होता है अर्थात् द्रव्य पद से उत्पत्तिविशिष्ट, विनाशविशिष्ट ध्रौव्य के आश्रय का बोध होता है। इस प्रकार का बोध मानने पर यदि यह आपत्ति खड़ी हो कि उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य में कौन किसका विशेषरण हो, इस बात का कोई निर्णायक न होने से उक्त प्रकार से विशिष्ट आश्रय का एकविध बोध
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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