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________________ [ 163 मानना समुचित नहीं है तो उस दशा में "एकत्र द्वयम्” की रीति से उत्पत्ति आदि तीनों धर्मों का एक प्राश्रय में युगपत् अन्वय मानना श्रेयस्कर होगा / अर्थात् द्रव्य पद से होनेवाले बोध में उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्यगत तीन प्रकारताओं से निरूपित आश्रयगत एक विशेष्यता का अङ्गीकार उचित होगा। निष्कर्ष यह है कि द्रव्य पद से आश्रयत्रय की विवक्षा न होने के कारण आश्रयत्रय की दृष्टि से भी द्रव्यपद को नित्य बहुवचनान्त नहीं माना जा सकता / / 66 / / यद्वन्महेश्वरपदन्न विभिन्नवाच्यं, सर्वज्ञतादिषडवच्छिदया परेषाम् / द्रव्यध्वनिस्तव तथैव परं पदार्थ वाक्यार्थभावभजना न परैः प्रदृष्टा // 67 // इस पद्य में उदाहरण द्वारा इस बात की पुष्टि की गई है कि उत्पत्ति आदि तीन धर्मों के प्रवृत्ति-निमित्त होने पर द्रव्य पद नानार्थक और नित्य बहुवचनान्त नहीं हो सकता। नैयायिकों ने महेश्वर शब्द के छः प्रवृत्ति-निमित्त माने हैंसर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः / अनन्तशक्तिश्च विभोविधिज्ञाः षडाहुरङ्गानि महेश्वरस्य // तात्पर्य यह है कि महेश्वर शब्द से सर्वज्ञता-समस्त पदार्थों का, सभी सम्भव पदार्थों का सभी सम्भव प्रकारों से यथार्थज्ञान, तृप्तिअपने सुख की इच्छा का न होना, अनादिबोध-नित्यज्ञान, स्वतन्त्रताजगत्कर्तृत्व, नित्य-अलुप्तशक्ति-कभी भी नष्ट न होनेवाली शक्ति अर्थात् नित्य इच्छा और नित्य प्रयत्न तथा अनन्तशक्ति-अपरिमित कारणता से युक्त एक ईश्वर का बोध होता है तो जिस प्रकार महेश्वर शब्द नानार्थक और नित्य बहुवचनान्त न होने पर भी सर्वज्ञता आदि
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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