SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 164 ] छः धर्मों का बोधक होता है उसी प्रकार नानार्थक . और नित्य बहुवचनान्त न होने पर भी द्रव्यपद उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य के एक आश्रय का बोधक हो सकता है और इसीलिये नैयायिक, जिन्हें स्याद्वाद का सुपरिचय नहीं है, भले ही स्वीकार न करें पर जैन विद्वानों ने जिन्हें स्याद्वाद का मर्म पूर्णतया ज्ञात है, द्रव्य शब्द में एक ही साथ पदाभाव और वाक्याभाव दोनों बातों की कल्पना की है अर्थात् उन्होंने यह स्वीकार किया है कि उत्पत्ति आदि अनेक अर्थों का बोधक होने से द्रव्यशब्द वाक्यरूप भी है और उन, अनेक अर्थों से युक्त एक आश्रय का बोधक होने से पदरूप भी है // 67 // एवं च शक्तितदवच्छिदयोभिदातो, . द्रव्यध्वनेनयभिदेव विचित्रबोधः। काचित् प्रधानगुणभावकथा क्वचित्तु, लोकानुरूपनियतव्यवहारक: // 68 // / इस पद्य में यह बताया गया है कि द्रव्य शब्द की शक्ति और उस के अवच्छेदक भिन्न-भिन्न हैं / अतः भिन्न-भिन्न नयों के अनुसार उस शब्द से भिन्न-भिन्न प्रकार के बोध हुआ करते हैं / हाँ, यह अवश्य है कि कहीं-कहीं द्रव्य शब्द के प्रतिपाद्य अर्थों में किसी को प्रधान और किसी की गौण मानना पड़ता है। क्योंकि ऐसा माने बिना विभिन्न नयों द्वारा विभिन्न अर्थों में आबद्ध ऐसे कई लोकव्यवहार हैं जिनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ जैसे-जब यह कहा जाता है कि 'द्रव्य के अनेक गुण-धर्म तो बदलते रहते हैं पर द्रव्य स्वयं स्थिर रहता है' तब स्पष्ट है कि इस कथन में द्रव्य शब्द के उत्पाद और व्यय-रूप अर्थ गौण रहते हैं और ध्रौव्यरूप अर्थ प्रधान रहता है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि 'द्रव्य प्रतिक्षरम कुछ न कुछ बदलता रहता है, अन्यथा किसी समय उसका जो सुस्पष्ट, परिवर्तन
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy