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________________ 12 ] हो कि भगवान् मुझे भी खण्ड-खण्ड करके दान में दे दें' इस प्रकार की शङ्का करता हुआ सुमेरु पर्वत किन्नरों के द्वारा गाये जानेवाले आपके यश की आड़ में अपने को छिपा रहा है क्या ? // 14 // वर्षणैर्मुशलधारघनानां, पङ्कलेशमपि या न बभार। सा क्षमैव तव कापि नवीना, यच्चलेऽपि कमठे न चकम्पे // 15 / / हे देव ! मेघों की मूसलधार 'बृष्टि के कारण जो क्षमा-पृथिवी कीचड़ के तनिक अंश को भी धारण नहीं कर सकी (अर्थात् पानी की अतिवृष्टि से वह कीचड़ बह गया) वहीं आपकी क्षमा-शान्ति कमठासुर के उपद्रव से तनिक भी विचलित नहीं हुई यह एक नवीन ही घटना है। अर्थात् शास्त्रों में पृथ्वी का दूसरा नाम जो 'क्षमा' कहा गया है उससे आपकी 'क्षमा-' भावना कुछ विचित्र ही है क्योंकि उस क्षमा पर जब मूसलधार वृष्टि होती है तो वह उस कीचड़ का सामान्य अंश भी धारण नहीं कर पाती जबकि आपकी क्षमा कमठासुर के द्वारा किये गये अनेक उपद्रव-परीषहों को सहन कर लेती है इसी प्रकार वह क्षमा-पृथिवी जिस कमठ-कच्छप की पीठ पर स्थित है उसके तनिक चञ्चल होने पर ही काँप उठती है जबकि आपकी क्षमा-भावना उस कमठ दैत्य के भीषण उपद्रवों में भी विचलित नहीं होती // 15 // अम्बरत्रिपथगाशतपत्रं, लाञ्छन-भ्रमरशोभि विभाति / तीर्थनाथ ! तव कीर्तिमराली-भुक्तशिष्टमिह मण्डलमिन्दोः // 16 // हे तीर्थेश ! इस संसार में यह जो चन्द्रमा का बिम्ब शोभित हो रहा है वह (वस्तुतः चन्द्रमा न होकर) आपकी कीर्तिरूपी हंसी के खाने से बचा हुआ तथा भंवरा जिसमें बैठा हुआ है ऐसे लाञ्छन से युक्त आकाशगङ्गा का कमल शोभित हो रहा है / 16 / /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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