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________________ [ 11 प्राश्रितः कमलया जिननाथ ! त्वं विभासि नरकान्तक एव / युज्यतामिति तवामृतधाम-प्रासलालसतमो विनिघातः // 12 // हे जिनेश्वरदेव ! आप लक्ष्मी-शोभा के द्वारा सेवित होने के कारण नरकासुर के विनाशक अथवा नरक-पाप का अन्त करनेवाले विष्णु के समान शोभित हो रहे हो। इसलिये अमृतधाम-चन्द्रमा अथवा मोक्षधाम को निगलने की लालसावाले तमस्-राहु अथवा पाप का नाश करना आपके द्वारा उचित ही है / अर्थात् जिस प्रकार लक्ष्मी से सेवित नरकान्तक विष्णु ने अमृतधाम चन्द्रमा को निगलने की इच्छा वाले राहु का सिर काट दिया था उसी प्रकार मोक्षलक्ष्मी से सेवित पाप-प्रज्ञान का नाश करनेवाले आपके द्वारा मोक्षधाम को निगलने वाले पाप-प्रज्ञान का विनाश करना उचित ही है / / 12 / / त्वां श्रितं जिन !. विदन्ति दिनोद्यन्मानबारविमलं सुरसाथैः / उद्भटं सुरुचिभिर्वचनौटुर्मानवार विमलं सुरसाथैः // 13 // हे उदीयमान अहङ्कार के निवारक जिनेश्वर ! लोग आपको देवसमूह से सेवित, निर्मल, सुन्दर रसयुक्त तथा सुरुचिपूर्ण वचनों से सर्वज्ञरूप सूर्य ही जानते हैं-समझते हैं। अर्थात् जिस प्रकार सूर्य अन्धकार का निवारण करता है. वैसे ही आप अहङ्कार का निवारण करते हैं, जैसे वह ग्रहगणों से सेवित है वैसे ही आप देवसमूह से सेवित हैं, जैसे सूर्य उत्तम और मधुर किरणों से सर्वज्ञ है वैसे ही आप भी उत्तम रसपूर्ण तथा सुरुचिपूर्ण वचनों से सर्वज्ञ हैं अतः मनुष्य आपको सूर्य ही समझते हैं / / 13 / / . पाकलय्य तव वार्षिकदानं, याचकार्थनिजभेदविशङ्की। निह नुते किमिह किन्नरगीतस्त्वद्यशोभिरमरादिरपि स्वम् // 14 / / हे देव ! आपके वार्षिक दान-वरसीदान को देखकर 'कहीं ऐसा न
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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