SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 ] आप अप्रतिम हैं यहाँ 'अनन्वयालङ्कार' है // 8 // रोहिताविहितसख्यमरीचि-त्वन्नखानविधृतप्रतिबिम्बः / मज्जति प्रणमतां भवताप-व्यापदानुपशमाय नु कायः // 6 // हे देव ! जो मनुष्य इन्द्र-धनुष से स्पर्धा करनेवाले आपके नखानभाग में (प्रणाम करने के माध्यम से) अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को मज्जित कर देता है वह भवत सन्तापरूप विपत्तियों को शान्त करने के लिये मानो (किसी अमृत-सरोवर में ही) स्नान करता है। अर्थात् प्रणाम करते समय अपने शरीर का प्रतिबिम्ब भगवान् के चरणों के नखाग्रभाग में पड़ने से उस व्यक्ति का भवंताप शान्त हो जाता है अथवा उसका भवताप भगवान् मिटा देते हैं // 4 // वेद यो विमलबोधमयं त्वां, शुद्धनिश्चयनयेन विपश्चित् / स स्वमेव विमलं लभमानो, द्वेष्टि रज्यति न वा भुवि कश्चित् // 10 // हे देव ! जिस विद्वान् ने शुद्ध निश्चयनय के द्वारा निर्मल बोधस्वरूप आपको जान लिया वह स्वयं को ही निर्मल बनाता हुआ संसार में न किसी से द्वेष करता है और न किसी से अनुराग // 10 // ईहते शिवसुखं व्रतखिन्नस्त्वामनाहतवता मनसा यः / विश्वनाथ ! स मरुस्थलसेवा-योग्यतामिह बित्ति पिपासुः // 11 // हे जगन्नाथ ! इस ससार में जो व्यक्ति आपके प्रति अनादरभाव रखते हुए अन्य विभिन्न व्रतों के कारण खिन्न होता हुआ मोक्षसुख को चाहता है, वह प्यासा होकर भी (किसी आप जैसे सरोवर का अनादर करके) मरु-स्थल से जल प्राप्ति की अपेक्षा करता है। अर्थात् आपके प्रति अनादर-भाव रखकर किये जानेवाले तप-त्यागरूपी व्रत कभी फलदायक नहीं होते हैं / / 11 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy