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________________ [6 मोह-रहित श्रमरम समुदाय का मन भी निश्चय ही मोहयुक्त बनाया जा रहा है / / 5 // न्यक्कृतः शुभवता भवता यच्चित्तभूस्त्रिजगतामपकारी। तज्जिनोत्तम ! तमोदलन ! त्वच्छाययैव तनुमेष बित्ति // 6 // हे जिनोत्तम, हे अज्ञाननाशक ! कल्याणकारी आपने तीनों लोक का अहित करनेवाले कामदेव का जो तिरस्कार कर दिया है, उसी कारण वह आपकी छायामात्र से अपने शरीर को धारण किये हुए है अर्थात् कामदेव आपसे तिरस्कृत होकर लज्जावश अपने शरीर का परित्याग करके 'पाप नहीं तो आपकी छांया' से ही अपना शरीरश्यामवर्णवाला धारण कर रहा है / / 6 / / अप्सरोभिरपि नाद्रितकं यद्यच्च न स्मरशिलीमुखभेद्यम् / वज्रतुल्यमपि तत्कथमन्तर्भक्तिभृत्सु तव मार्दवमेति // 7 // हे देव ! जो अप्सरात्रों के (भाव-विलासादि) द्वारा द्रवित नहीं हुप्रा और जो कामदेव के बाणों से भी नहीं बिंधा गया ऐसा आपका वज्रतुल्य हृदय भी भक्तजनों के प्रति कोमल कैसे बन जाता है ? (यह आपका स्वामि-वात्सल्य ही है / ) / / 7 // स्वं विशुद्धमुपयुज्य यदाप्यं, श्राम्यसीह न परं परिणम्य / सर्वगोऽपि नहि गच्छसि सर्व, तद्विभासि भुवने त्वमिव त्वम् // 8 // हे देव ! इस संसार में प्राप्त करने योग्य निर्मल आत्मा को पाकर तथा उस विशुद्धि का भोग करके पुनः वही विशुद्धि दूसरे में परिणत करके भी आप नहीं थकते हैं और सर्वगत होकर भी सर्वत्र नहीं जाते हैं अथवा सर्व-शिव के पास नहीं जाते हैं इसलिये विश्व में आप अपने समान ही शोभित होते हैं / अर्थात् ऐसा कोई आपके समान न होने से
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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