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________________ [ 13 त्वत्प्रतापदृढंदण्डविनुन्नं, बम्भ्रमीति गगने ग्रहचक्रम् / कुम्भमत्र जिनराज ! तदुच्चैः, प्रातरेव सृजति द्युतिमन्तम् // 17 // हे जिनेश्वर ! आपके प्रतापरूपी मजबूत डण्डे से चलाया हुआ यह ग्रहों का समूह तथा ग्रहरूपी चक्र-चाक आकाश में बार-बार घूम रहा है और वही यहाँ प्रातःकाल में कान्तिमान् महाकुम्भ-सूर्य को उत्पन्न करता है // 17 // दुर्जनस्य रसना रसनाम, द्वेषपित्तकटुरेव न वेद। नो सुधाशिरसनोचितसारान्, सद्गुणानपि तवाद्रियते या // 18 // हे देव ! दुर्जन की जिस जिह्वा ने द्वेषरूपी पित्त के कारण कटु हो जाने से रस का नाम भी नहीं जाना वही जिह्वा अमृतभोजी देवों की रसना के प्रास्वादन योग्य आपके उत्तम गुणों का आदर नहीं करती है / / 18 // जङ्गमोऽसि जगदीश ! सुरद्रुर्दानपात्रमिह तद्बहु याचे / सर्वगोऽसि परिपूरय सर्व, हृद्दरीपरिसरस्थितमिष्टम् // 16 // हे जगदीश ! आप इस जगत् में जङ्गम कल्पवृक्ष हैं और मैं दान लेने की पात्रतावाला हूँ। अतः आपसे बार-बार माँगता हूँ और आप सर्वान्तर्यामो हैं अतः मेरी हृदयरूपी गुफा के अन्तराल में स्थित सभी अभिलाषाओं को पूर्ण करो // 16 // यस्तव स्रजमवाप कृपायास्तं 'यशोविजय' मेनमवैमि। . तत्र सत्रमिव मङ्गललक्ष्म्याः , सम्पदे तदधुनापि तवाख्या // 20 // हे देव ! जिस यशोविजय ने आपकी कृपारूपी पुष्पमाला प्राप्त की है वही यह 'यशोविजय' है ऐसा मैं मानता हूँ / अतः आप मेरी रक्षा करें, मैं आपकी शरण में आया हूँ। यह आपका नामस्मरण इस लोक
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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