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________________ 14 ] में तपःसम्पत्ति और लोकान्तर में मोक्षलक्ष्मी का प्रदाता हो // 20 // वासवोऽपि गुरुरप्यपरोऽपि, त्वद्गुणान् गणयितुं कथमीष्टे / प्रस्य ते करुरणयव दिगेषा, भ्राजतां तदपि भूरिविशेषा // 21 // हे देव ! चाहे इन्द्र हो, चाहे देवगुरु बृहस्पति हो अथवा कोई और अन्य मेधाशाली हो किन्तु वह आपके गुणों की गणना में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् यद्यपि वे ऐसे महान् हैं, तथापि आपके गुणों का वर्णन उनके द्वारा भी नहीं किया जा सकता, अतः मेरे द्वारा की गई यह दिङमात्र संक्षिप्त स्तुति आपकी कृपा से ही विशिष्टताओं सेपरिपूर्ण होकर शोभित हो (ऐसी मेरी कामना है)' // 21 // 1. पूज्य उपाध्यायजी ने इस स्तोत्र की रचना वाराणसी में की थी। रचना की दृष्टि यह स्तोत्र एक अत्युत्तम साहित्यिक एवं दार्शनिक कृति है। इसमें प्रायः सभी पद्यों में यमक, रूपक और अपह्न ति अलङ्कारों का तथा जैनन्याय के परिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है अतः भाव एवं भाषा दोनों की मनोरमता से स्वर्ण-सौरभ-संयोग-- समन्वित यह स्तोत्र सहृदयों द्वारा सर्वथा श्लाघनीय है। -सम्पादक
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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