________________ [ 47 हे देव ! भवप्रक्षयशुद्धिवालों के वाग्वर्णन की तुलना यदि बुद्धि में o सके तो कदाचित् ये योगी आवके गुणों की गणना करने में प्रवृत्त हो सकते हैं अर्थात् समर्थ हो सकते हैं // 74 // परार्द्धपाथोनिधिपारदृश्वा, विधेर्यदि स्याद् गणितप्रकारः। भवद्गुणानां गणना तथापि, कथापि वा वारिधिलङ्घनस्य // 76 // हे जिनेश्वर ! यदि विधाता गणित के प्रकार–पराध और सागरपर्यन्त गणित-का पारदर्शी हो, तभी आपके गुणों की गणना हो सकती है अथवा इतना होने पर भी समुद्र लाँघने की बात मानी जा सकती है। अर्थात् आपके गुणों की गणना समुद्र-लङ्घन के समान सर्वथा असम्भव है / / 76 // भवद्गुणानां विधिरभ्रपट्टे, भवत्प्रतापैः परिजितस्य / द्रवः सुमेरोस्त्रपया द्रुतस्य, सवर्णवर्णलिखतु प्रशस्तिम् // 77 // हे जिनेश्वर ! विधाता आकाशरूपी पाटी पर आपके प्रतापों से तजित और लज्जाव पिघले हुए सुमेरु पर्वत की सुनहरी श्याही से आपके गुणों की प्रशस्ति लिखा करे / / 77 // भवद्गुणानां गणनाय नायं, ताराङ्करेखाः प्रवरः प्रकारः। स्मरत्विदानी द्रुहिणस्त्रिलोक्यां, दोधूयमानां परमाणुराजिम् // 78 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना के लिये ताराओं के अंकों के साथ लेखा करना यह उचित प्रकार नहीं है, अतः विधाता अब तीनों लोकों में उड़ती हुई परमाणु राशि का स्मरण करे // 7 // न्यस्ता कदाचिद्धनमूलकूले, करेशयानां च कदाचिदिन्दुम् / भवद्गुरणानां गरणकस्य धातुः, खटी विना नाम घटी न यातु // 7 //