________________ - कभी घनमूल के किनारे रखने से और कभी चन्द्रमा से आपके गुणों की गणना करने के लिये उसे हाथ में रखने से हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना करनेवाले विधाता की (पाटी पर लिखने की) खड़ी के बिना एक घड़ी भी नहीं बीते / / 76 // धातुस्तव श्लोकपरीक्षणेच्छोश्छन्दोऽपि मन्दोदरतां प्रयाति / येनैकवर्णेन जगज्जगाहे, सीमेव काऽनुष्टुभि तस्य नाम // 8 // हे देव ! आपके यश की परीक्षा करने के इच्छुक विधाता का छन्द भी मन्द हो जाता है, क्योंकि आपके यश के एक वर्ण (एक अक्षर) ने ही जगत् को व्याप्त कर दिया फिर उस विधाता के अनुष्टुप् छन्द की सीमा ही क्या है ? // 80 // दिक्चक्रचक्रभ्रमणैर्गुणस्ते, यशःपटं यत् कक्यो वयन्ति / अस्मिन् विधातुः किल तार्किकस्य, पपात तर्कः पथि कर्कशेऽस्य // 1 // हे जिनेश्वर ! कविगण * दिक्समूहरूपी चक्र-भ्रमण के समान गुणों से तन्तुओं से जो आपके यशरूप वस्त्र को बुनते हैं इसमें तार्किक विधाता का तर्क कठोर मार्ग में गिर गया अर्थात् ऐसे विलक्षण पटरूप कार्य का कारण प्रचलित न्यायशास्त्र में नहीं मिलता है क्योंकि चक्रभ्रमण से घटकार्य होता है पट कार्य नहीं // 1 // विद्याकलाकौशलशिल्पिनोऽपि, गुणेऽपि वृद्धिस्तव सुप्रतीता। तदत्र वैयाकरणो विधाता, विलक्षणं लक्षणमभ्युपैतु // 82 // हे जिनेश्वर ! विद्या, कला, कौशल और शिल्प से युक्त होने पर भी आपके गुण में वृद्धि सुप्रतीत है / इसलिये वैयाकरण विधाता यहाँ भी विलक्षण लक्षण (व्याकरण-शास्त्र के लक्षण) को प्राप्त करे अर्थात् व्याकरण के गुण और वृद्धि तो पृथक्-पृथक् होते हैं जबकि