________________ सा भाग यह चन्द्रमा अन्धकार से नष्ट नेत्रोंवाले आकाश का अञ्जन है // 71 // भवद्यशःस्पर्धनजं रजः किं, मिलत्सुधाधाम्नि कलङ्कपङ्कः / जडे भवत्येव नु पङ्किलत्वं, व्याप्तौ निदानं सहचारबुद्धिः // 72 // हे देव ! आपके यश से स्पर्धा करने से उत्पन्न रज (धूलि) ही चन्द्रमा में मिल जाने से कलङ्करूपी पंङ्क बन गई है क्या ? यह उचित भी है, क्योंकि जड़पदार्थ में ही पङ्किलता होती है, जैसे व्याप्ति में सहचारबुद्धि (सहावस्थान बुद्धि) ही मूल कारण है (साहचर्य नियम व्याप्ति का लक्षण है) // 72 // देवाधिदेवस्य तव स्वरूपं, स्तोतुं न देवा अपि शक्नुवन्ति / तथापि कल्यारकरी ममास्तु, भक्त्या भवद्वर्णनरिणकेयम् // 73 // हे जिनेश्वर ! आप देवों के अधीश्वर हैं, आपके स्वरूप का वर्णन करने में देव भी समर्थ नहीं हो सकते हैं; तथापि भक्ति-पूर्वक आपके गुणों के वर्णनवाली यह रचना मेरा कल्याण करनेवाली हो // 73 // पीयूषपात्रं वितनोति तारा-रेखाभिराभिः शशिनं तु रिक्तम् / भवद्गुरणानां गणनां विधित्सुविधिः पुनः किं दिवि पूर्यमाणम् // 74 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों की गणना करने का इच्छुक विधाता इन तारारूप रेखाओं से अमृतपात्र चन्द्रमा को खाली करता है (और फिर भी ठीक गणना नहीं होने से) पुनः उस चन्द्रमा को पूर्ण कर देता है क्या ? // 74 // भवेद् भवप्रक्षयशुद्धिभाजां, वाग्वर्णनानां तुलना धियां चेत् / गोणे गुणानां तु तदा कदाचित, पदं निदध्युस्तव योगिनोऽमी // 75 //