________________ [ 45 सुधा सुधांशोः कियती किलेयं, विलीयते या त्रिदर्शनिपीता। वर्द्धन्त एवात्र जगज्जनस्ते, यशांसि पीतान्यपि कर्णपत्रैः // 68 // हे देव ! चन्द्रमा का यह अमृत ही कितना है जो देवताओं के पीने पर विलीन--समाप्त हो जाता है, किन्तु अापके यश तो जगत् के लोगों से कर्ण द्वारा पीने पर भी यहाँ बढ़ते ही रहते हैं / / 68 / / सुधाकरस्ते यश एव साक्षाच्चन्द्रे नु तत्त्वभ्रम एव भूयान् / सहावतिष्ठेत कुतोऽन्यथा वा, दोषाकरत्वेन सुधाकरत्वम् // 6 // हे देव ! आपका यश वस्ततः साक्षात् सुधाकर अमृतकिरण है, क्योंकि चन्द्रमा में तो बड़ा तत्त्वभ्रम ही है / यदि ऐसा नहीं हो तो चन्द्रमा दोषाकर (दोषों का खजाना और रात्रि को करनेवाला) होने के साथ-साथ सुधाकर (अमृतमयी किरणोंवाला) के स्वरूप को क्यों धारण करे ? / / 66 // भवद्यशःक्षोर निधेः पयोभिर्भूत्वा शशिद्रोणमियं किल द्यौः। भवद्गुणस्वर्दुमकन्दरूपं तारागणं सिञ्चति शुभ्रभासम् // 70 // हे देव ! यह आकाश आपके यशरूपी क्षीरसमुद्र के दूध से चन्द्रमारूपी द्रोण-पात्र को भरकर आपके गुणरूपी कल्पवृक्ष के कन्दरूप शुभ्रकान्तिवाले तारागणों को सींचता है / / 70 // यशोभरस्ते प्रविभाति विश्व-समुद्रकेऽसौ घनसारसारः / यदेकदेशो विधुरञ्जनत्वं, दिवस्तमोलुप्तदृशः प्रयाति // 71 // हे जिनेश्वर ! कर्पूर के समान श्रेष्ठ आपका वह यशःसमूह - विश्वसमुद्र में शोभित हो रहा है और उसी यशःसमूह का एक छोटा