________________ [ 135 की नींव पर भी तर्क और विपरीतानुमान के महल नहीं खड़े किए जा सकते, क्योंकि जाति और व्यक्ति इन दोनों पक्षों में आपके नैगमादि नयों से प्रवृत्त होनेवाले न्यायनय से जिस दोषसमूह का उल्लेख पहले किया गया है उसी से उक्त व्याप्तियों के बल पर होनेवाले सभी तर्क और विपरीतानुमानों का निरास हो जाता है / / 17 / / तस्यैव तेन हि समं सहकारिणा च, सम्बन्ध-तद्विरहसङ्घटनाविरोधः / ध्वस्तस्तवैव जिनराज ! नयप्रमाणे न स्यात् प्रभुः कथमपि क्षरिणकत्वसिद्ध्यै // 18 // उस एक ही व्यक्ति में उसी सहकारी के सम्बन्ध की संघटनाअस्तित्व विरुद्ध है। अतः जिस सहकारी का सम्बन्ध जिसमें नहीं है उसे उस सहकारी के सम्बन्धी से भिन्न मानना होगा और इस भिन्नता के उपपादनार्थ क्षणिकता की स्वीकृति भी उपलब्ध करनी होगी। यह बौद्ध-कथन सङ्गत नहीं हो सकता, क्योंकि हे जिनराज ! आपके नय और प्रमाणों द्वारा उक्त विरोध का परिहार हो जाता है। अतः वह विरोध क्षणिकता का साधन करने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता // 18 // व्याप्त्यप्रदर्शनमिदं व्यतिरेकसिद्धावप्युच्चकैः क्षतिकरं त्वदनाश्रवस्य / श्वासादिकं ज्वर इवात्र च पक्षहेतु दृष्टान्तसिद्धिविरहादधिकोऽपि दोषः // 16 // सब अनर्थों की मूलभूत कामनाओं से रहित हे परमेश्वर ! आपके उपदेश में आस्था न रखने वाले बौद्ध की सत्ता में क्षणिकता की