________________ 134 ] सहकारी कारणों के सन्निधानकाल में ही कार्य का जनन करनावस्तु का नियत स्वभाव है और समालोचना स्वभाव के पद का स्पर्श नहीं कर सकती। अतः एक काल में जो जिसका कारी है कालान्तर में उस कार्य का प्रकारित्व उसके स्वभाव में सम्भावित नहीं हो सकता। इसलिए कालभेद के आधार पर एक कार्य का कारित्व और अकारित्व ऐसे विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध एक व्यक्ति में प्राप्त नहीं होगा। फलतः बौद्ध-मत में जैसे क्षणिक एक वस्तु में नानात्व प्रसक्त नहीं होता वैसे न्यायादिमत में स्थिर एक वस्तु में भी नानात्व प्रसक्त नहीं हो सकता। विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मों में से किसी एक ही का सम्बन्ध एक व्यक्ति में स्वीकार करना उचित है, क्योंकि उस स्थिति में निमित्तभेद की कल्पना का आयास नहीं करना होगा। हे जिनेन्द्र ! ऐसा आपके समक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आप उन सभी नयभेदों के अध्यक्ष हैं जिनके आधार पर एक व्यक्ति में भी अनेक आकार के व्यवहार होते हैं और जिनका सामञ्जस्य करने के लिए आपने प्रत्येक परिवेष में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्मों के अस्तित्व का उपदेश किया है // 16 // यत् कारणं जनयतीह यदेकदा तत्, * तत् सर्वदेव जनयेन्न किमेवमादि / प्राक्पक्षयोः कलितदोषगणेन जाति व्यक्त्योनिरस्यमखिलं भवतो नयेन् // 17 // 'जो कारण एक काल में जिस कार्य का जनन करता है वह अपने समग्र स्थितिकाल में भी उसका जनन करता है और जो जिस का जनन अपनी स्थिति के किसी एक क्षण में नहीं करता वह अपने समग्र स्थिति काल में भी उसका जनन नहीं करता।' इस प्रकार की व्याप्तियों