________________ [ 133 हे पवित्र योगनिधि ! आपके द्वारा आविष्कृत स्याद्वाद-दर्शन को छोड़कर योगाचार के सिद्धान्त की शरण लेने पर भी बौद्ध के साध्य की सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि वहां भी कार्यकारण भावरूप अपने वैरी का मार्गनिरोध किये बिना उसकी उस आपत्ति का परिहार न होगा जिसे टालने के लिए उसने यह नया स्थान चुना है। और यदि कार्यकारणभाव का अस्तित्व मिटाकर वह ऐसा करेगा तो स्थिर एवं बाह्य वस्तु को स्वीकृति का भार अवश्य उठाना पड़ेगा / / 15 / / देशे स्वभावनियमाद्यदि नापराधः, कालेऽपि मास्तु स निमित्तभिदाऽनुचिन्त्या। तेस्तैर्नयैर्व्यवहतिर्यदनन्तधर्म क्रोडीकृतार्थविषया भवतो विचित्रा // 16 // 'अपने आश्रयस्थान में ही कार्य का जनन करना' यह वस्तु का स्वभाव है, स्वभाव पर किसी तक का शासन नहीं चल सकता, उसका अधिकार संकुचित नहीं होता, उसके बारे में, इस वस्तु का ऐसा ही स्वभाव क्यों है ? इसके विपरीत क्यों नहीं ? ऐसे प्रश्न का औचित्य नहीं माना जाता। इस लिये जो एक देश में एक कार्य का कारी-उत्पादक है, देशान्तर में उसका अकारित्व उसके स्वभावरूप में में प्राप्त नहीं होता। अतः देश-भेद से एक कार्य का कारित्व और प्रकारित्व ऐसे दो विरुद्ध धर्मों का सन्निवेश एक व्यक्ति में प्राप्त न होने के कारण क्षणस्थायी वस्तु में सर्वशून्यता-पर्यवसायी अनैक्य प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिये अमुक पदार्थ अमुक स्थान में ही अमुक कार्य काजनन करता है ऐसा कहनेवाले व्यक्ति का कोई अपराध नहीं होता। यदि ऐसी बात क्षणिकतावादी बौद्ध की ओर से कही जाएगी तो .. स्थैर्यवादी नैयायिक की ओर से भी यह बात कही जा सकती है कि