SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . जो व्यक्ति महान् ऐश्वर्यशाली स्वामी को पाकर अपने अनुकूल वस्तु की माँग नहीं करता है, वह मेघों के रत्न बरसाने पर भी अपना हाथ पसारने में कंजूसी करता है / / 3 // त्वयि प्रभौ पूरयति प्रकामं, मुहुर्मनःप्रार्थितमर्थमेषः। .. चिरं करालम्बनदत्तखेदां, कल्पद्रुकोटीमपि किं करोतु // 4 // हे देव ! मेरी मनोवांछित वस्तु को आपके द्वारा निरन्तर पूर्ण करने पर यह व्यक्ति अधिक समय तक हाथ में रखने से कष्ट देनेवाले ऐसे करोड़ों कल्पवृक्षों को लेकर भी क्या करे ? // 4 // वाञ्छातिगार्थप्रदमीशमेनमासाद्य लोकः पुरुषोत्तम त्वाम् / चिन्तामणौ यच्छति कञ्चिदर्थ, को रज्यते ग्राविण विशेषदर्शी // 5 // हे देव ! इच्छा से भी अधिक वस्तु को देने में प्रभु-समर्थ एवं पुरुषोत्तम ऐसे आपको पाकर कौन बुद्धिमान् मनुष्य ऐसा है कि जो कतिपय वस्तु को देनेवाली प्रस्तररूप चिन्तामणि के प्रति मोह करता है // 5 // तृणानि भुक्त्वा किल कामधेनुर्गवान्तरस्यैव दशां बिभर्तु / अस्याः पुरो न्यस्यति कः करौ स्वौ, त्वदेकनाथे भुवने मनस्वी // 6 // हे देव ! घास को खाकर कामधेनु भी दूसरी गौ के समान पशु ही है। जगत् में आपके एक स्वामी होने पर कौन ऐसा विवेकशील व्यक्ति है, जो उस कामधेनु (पशु) के आगे अपने हाथों को फैलाता है ? // 6 // कथं निषेव्यो दृषदाहतोऽपि, व्ययं वजन देव ! महत्करीरः त्वां पारिजातं सुकृतैरपूर्व, सदातनं प्राप्य सचेतनञ्च // 7 // - हे देव ! अपूर्व सनातन और सचेतन कल्पवृक्ष के समान आपको
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy