________________ [ 167 एक ही वृक्ष में शाखा, मूल आदि अवच्छेदक भेद से कपिसंयोग तथा कपुिसंयोगाभाव आदि परस्पर विरोधी धर्म रह लेते हैं वैसे ही देश, काल, पुरुष आदि अपेक्षाभेद से एक ही वस्तु में दर्शन-प्रदर्शन आदि परस्पर विरोधी धर्म भी रह सकते हैं; अतः वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता अत्यन्त युक्तियुक्त है // 53 // यद् गृह्यते तदिह वस्तु गृहीतमेव, तद् गृह्यते च न च यत्तु गृहीतमास्ते / इत्थं भिदामपि स किं न विदाङ्करोतु, यः पाठितो भवति लक्षणभङ्गजालम् // 54 // जो वस्तु जिस समय जानी जाती है उस समय वह नियमेन ज्ञात हो जाती है, परन्तु जो वस्तु 'ज्ञात' हो जाती है वह नियमेन 'ज्ञायमान' - भी हो, यह बात नहीं है। तात्पर्य यह है कि वस्तु दो समयों में ज्ञातकही जाती है -१-ज्ञान की उत्पत्ति के समय और २-ज्ञान की निवृत्ति हो जाने के समय। पहले समय में ज्ञान की विद्यमानता होने से वस्तु ज्ञात होने के साथ ज्ञायमान भी हो सकती है किन्तु दूसरे समय में ज्ञान की विद्यमानता न होने से वस्तु ज्ञात तो होगी पर ज्ञायमान नहीं हो सकती, क्योंकि कोई भी वस्तु ज्ञायमान तभी हो सकती है जब उसका ज्ञान विद्यमान होता है। वस्तु की ज्ञायमानता और ज्ञातता के उपर्यक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि ज्ञायमान वस्तु में ज्ञातत्व और अज्ञातत्व के समावेश की सम्भावना तो नहीं है पर ज्ञात वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमानत्व के समावेश में कोई बाधा नहीं है / फलतः एक ही वस्तु में ज्ञायमानत्व और अज्ञायमात्वरूप विरुद्ध धर्मों का समावेश होने से वस्तु की विरुद्ध एवं विभिन्नरूपता की सिद्धि होती है। ___ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तु का स्वरूप विरुद्ध एवं विभिन्नरूपात्मक हैं तव सभी लोगों को उसके स्वरूप की प्रतीति क्यों