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________________ - [ 181. नहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जाएगा तो प्रत्येक पदार्थ का सर्वत्र अस्तित्व होने से सब स्थानों में सब पदार्थों के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। वस्तु को अव्यापक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अव्यापकता को यदि वस्तु का स्वभाव माना जाएगा तो उसके लोक-सम्मत आश्रय में भी उसकी व्याप्ति का लोप हो जाने से उसके नितान्त असत्त्व-शून्यता की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार वस्तु की सत्ता के शून्यता-ग्रस्त हो जाने से अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्वरूप उपजीव्य की सिद्धि न होने के कारण स्याद्वाद की प्रतिष्ठा असम्भव है। . बौद्धों के इस आक्षेप के उत्तर में जैनों का कथन यह है कि 'वस्तु के स्थूलत्व, अणुत्व आदि जिन धर्मों का निषेध उपर्यक्त रीति से किया गया है वे सब धर्म वस्तु में अपेक्षाभेद से कथञ्चित् विद्यमान हैं / वस्तु में उन धर्मों को स्वीकार करने पर जो दोष बताये गये हैं वे उन धर्मों को एकान्ततः स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर ही सम्भव हैं, अतः उन धर्मों के अभिन्न प्रास्पदरूप में वस्तु की सिद्धि होने में कोई बाधा न होने से स्याद्वाद-शासन पर किसी प्रकार कोई अाँच नहीं आएगी / / 60 // एतेन ते गुणगुरिणत्वहतेनिरस्तं, नैरात्म्यमोश समयेऽनुपलब्धितश्च / प्रात्मा यदेष भगवाननुभूतिसिद्ध, . एकत्वसंवलितमूर्तिरनन्तधर्मा // 61 // हे ईश्वर ! गुण और गुणी में भेद का अभाव तथा अनुपलब्धि से प्रसक्त होनेवाला यह नैरात्म्य आपके स्याद्वाद-शासन में अनायास ही निरस्त हो जाता है क्योंकि इस शासन को वह अनुभव प्राप्त है जिसके साक्ष्य पर अनन्त धर्मात्मक एक व्यक्ति के रूप में आत्मा के
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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