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________________ 182 ] अस्तित्व की सिद्धि अपरिहार्य है // 61 // भिन्नक्षरणेष्वपि यदि क्षरणता प्रकल्प्या, क्लुप्तेषु साऽस्त्विति जगत्क्षणिकत्वसिद्धिः / तद्रव्यता तु विजहाति कदापि नो तत् सन्तानतामिति तवायमपक्षपातः / / 62 / / न्यायदर्शन में आत्मा को एकान्त नित्य और बौद्धदर्शन में एकान्तक्षणिक माना गया है, किन्तु भगवान् महावीर का स्याद्वाद-शासन नितान्त पक्षपातरहित है। अतः उसके अनुसार प्रात्मा न केवल नित्य और न केवल क्षणिक है अपितु अपेक्षाभेद से नित्यं भी है और साथ ही क्षणिक भी। तात्पर्य यह कि आत्मा शब्द किसी एक व्यक्ति का बोधक न होकर एक ऐसे अर्थसमूह का बोधक है जिसमें कोई एक अर्थ नित्य और अन्य अर्थ क्षणिक है, जो अर्थ नित्य है उसका नाम है द्रव्य और जो अर्थ अनित्य हैं उन सबका नाम है पर्याय / इस प्रकार प्रात्मा द्रव्य, पर्याय उभयात्मक है और द्रव्यात्मना नित्य तथा पर्यायात्मना क्षणिक है। दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि ने क्षण को अतिरिक्त पदार्थ और क्षणिक माना है। इस मत की आलोचना करते हुए ग्रन्थकार का कथन है कि-नवीन धर्मी और धर्म की कल्पना करने की अपेक्षा पूर्वतः सिद्ध पदार्थों में धर्ममात्र की कल्पना में लाघव होता है। अतः क्षण नामक अनन्त अतिरिक्त पदार्थ मानकर उन सब में क्षरणत्व की कल्पना करने की अपेक्षा प्रथमतः सिद्ध समस्त पदार्थों में ही क्षणत्व की कल्पना में लाघवमूलक औचित्य है। फलतः संसार के समस्त स्थिर पदार्थों के क्षणरूप होने से आत्मा की भी क्षणिकता अनिवार्य है। ___ इस पर यह प्रश्न होगा कि स्थिरत्व और क्षणिकत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी हैं फिर एक पदार्थ में इन दोनों का समावेश कैसे
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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